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अनुशिष्टि महाधिकार प्रतिबंधप्रतीकारप्रतिकर्म भयादयः । निग्रंथस्य न जाते वोषाः संसारहेतवः ॥१२३३॥ महाश्रमकरे भारे रभसाद्धारवानिव । निरस्ते सकले ग्रंथे निवतो जायते यतिः ॥१२३४॥ भवंतो भाविनो भता ये भवन्ति परिग्रहाः । जहाहि सर्वथा तांस्त्वं कृतकारितमोवितैः ॥१२३५।। यावन्तः केचन ग्रंथाः संभवन्ति विराधकाः। नित्तः सर्वथा तेभ्यः शरीरं मुच निःस्पृहः ।।१२३६॥
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है, क्योंकि वस्त्रादि शरीर पर नहीं होनेसे किसीको कुछ भय या शंका नहीं होती कि इसने कपड़ेमें कुछ शस्त्र आदि तो नहीं छिपाये हैं ? जो व्यक्ति परिग्रह युक्त है वह सर्वत्र गुरु भारवाला गमनागमनमें चिंतावान् होता है अर्थात् मेरी अमुक वस्तु है उसे किसप्रकार देशांतरमें ले जाऊं इत्यादि चिंता परिहारोके होती है तथा इस पदों कुछ अवश्य छिपाया है इसप्रकार वह लोगों द्वारा शंकनोय होता है ।।१२३२।।
निर्ग्रन्थ के संसारके हेतुभूत प्रतिबंध, प्रतोकार, प्रतिकर्म और भय आदि दोष नहीं होते हैं । पराधीनता होना कहीं जाने आने में रुकावट होना प्रतिबंध कहलाता है। उसका ऐसा प्रतोकार-बदला लेना है इत्यादिको प्रतीकार कहते हैं। यह कार्य तो पहले कर दिया है इसको पोछे करूगा इत्यादि विचारको प्रतिकर्म कहते हैं । निग्रंथ तपोधन ग्राम नगर आदिमें स्वाधीन विचरता है, उसे कोई चिता नहीं रहती धनादि पासमें नहीं होनेसे कहीं पर भी जाओ भय नहीं रहता इसप्रकार परिग्रह त्यागी के प्रतिबंध आदि दोष नहीं होते ।।१२३३।।
जैसे कोई भारवाहक पुरुष महाश्रमके कारणभूत भारको उतार कर नित सुखी हो जाता है, वैसे सकल परिग्रहके उतार देनेपर-त्यागकर देनेपर मुनि सुखी शांत हो जाता है ।।१२३४।।
आचार्य क्षयकको उपदेश दे रहे हैं कि हे क्षपक ! तुम जो परिग्रह वर्तमानमें हैं जो अतीत में था और अनागतमें होवेगा उन तीनों कालोंके परिग्रहों को मन वचन काय और कृत कारित और अनुमोदना द्वारा छोड़ दो सर्वथा त्याग कर दो ।।१२३५।।