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मरणकण्डिका
ध्याक्षेपोऽस्ति यतस्तस्य न ग्रंथान्वेषणाविषु । ध्यानाध्ययनयोविघ्नो निःसंगस्य ततोऽस्ति नो ॥१२२६॥ दशितास्ति मनःशुद्धिः संगत्यागेन तात्विको । संगासक्तमना जातु संगत्यागं करोति किम् ॥१२३०।। निःसंगे जायते व्यक्त कषायारणां तनकृतिः । कषायो दोप्यते संगरिंधनरिव पावकः ॥१२३१॥ लघुः सर्वत्र निःसंगो रूपं विश्यासकारणम् । गुरुः सर्वत्र सग्रंथः शंकनीयश्च जायते ॥१२३२।।
मूनिके धन आदि परिग्रहोंका अन्वेषण करना आदि क्रियाओं में व्याकुलता नहीं रहती इसलिये ध्यान और अध्ययन में उस निःसंग मुनिके कोई विघ्न बाधा नहीं होती ।१२२६॥
___ आशय यह है कि जो परिग्रहले विरक्त है उसे परिग्रहोंको ढूछनेकी चिंता नहीं होती । मेरी अभिलषित वस्तु कहां गयी, कहां मिलेगी ऐसा सोच करना किसीको उस वस्तुके विषय में पूछना कि क्या आपने मेरो अमुक वस्तु देखी है इत्यादि । मिलने पर आनंद और नहीं मिलनेपर विषाद होता है । यह सब निष्परिग्रहीके नहीं होता, इसीलिये उसके शास्त्र स्वाध्यायमें कोई बाधा नहीं आती वह सतत् शास्त्राभ्यास में लीन रहता है तथा चित्त निराकुल होनेसे धर्मध्यान आदिकी भी सिद्धि हो जाती है।
परिग्रहके त्याग द्वारा वास्तविक मन की शुद्धि दृष्टिगोचर होतो है, जिसका मन परिग्रहमें आसक्त है वह क्या कभी परिग्रह त्याग कर सकता है ? नहीं कर सकता ।।१२३०।।
परिग्रह रहित निःसंग मुनि में कषायोंकी कृशता (कम करना) व्यक्त होती है, क्योंकि परिग्रह द्वारा कषाय वृद्धिंगत होतो है, जैसे ईंधन द्वारा अग्नि वृद्धिंगत होती है । अर्थात् परिग्रहका त्याग करनेवाला ही कषायोंको क्षीण कर सकता है, परिग्रह धारीके कषायोंको वृद्धि होती है ।।१२३१।।
__ परिग्रह रहित मुनि सर्वत्र लघु अर्थात् भार रहित होते हैं उन्हें गमनागमनमें किसीप्रकार की चिंता नहीं रहती। उनका नग्न दिगंबर रूप विश्वासका कारण होता