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अनुशिष्टि महाधिकार रागो मनोहरे ग्रंथे द्वषश्चास्त्यमनोहरे। रागढषपरित्यागो ग्रंथत्यागे प्रजायते ॥१२२६॥ शीतादयोऽखिलाः सम्यग्विषद्यते परीषहाः । शीतादिवारकं संगं योगिना त्यजता सदा ।।१२२७॥ शोतवातातपादीनि कष्टानिसहते यतः । क्रियतेऽनावरो बेहे नि:संगेन ततः परं ।।१२२८।।
इसोप्रकार क्षायिक सम्यक्त्व, केवलज्ञान आदि मंत्र औषधि जिसके पास नहीं है ऐसे तपोधन मुनिराज राग-द्वेष आदि सपास भर विषयरूपी वन में सावधान होकर रहते हैं । अभिप्राय यह है कि परिग्रहका त्याग करनेसे रागद्वेष नष्ट होते हैं तथा विषयाभिलाषा भी समाप्त होती है।
मनोहर इष्ट परिग्रहमें रामभाव होता है और अमनोहर अनिष्ट परिग्रहमें द्वेषभाव होता है अतः परिग्रहका त्याग करनेपर रागद्वेष का त्याग स्वत: हो जाता है ।।१२२६॥
शीत आदिको बाधाको रोकनेवाले परिग्रहका त्याग करनेवाले मुनिद्वारा सदा शीत, उष्ण, दंशमशक आदि संपूर्ण परीषह भलोप्रकारसे सहन किये जाते हैं ।।१२२७॥
भावार्थ-साधुजन कर्मोकी निर्जराके लिये सदा प्रयत्नशील रहते हैं, क्योंकि पूर्व संचित कर्म अन्यथा नष्ट नहीं होते हैं । कर्म निर्जराका प्रमुख कारण तप तथा परीषह सहना है । वस्त्र, घर आदिका त्याग कर देने से, शीतकी बाधा, धूपकी बाधा आदि स्वत: सहन हो जाती है, इसतरह परिग्रह त्यागको महत्ता बतायी है।
___आगे कहते हैं कि हिंसादि असंयमका मूल शरीरका मोह है जिसने परिग्रह त्यागा वह शरीरका मोह भो छोड़ता है
जिसकारणसे मुनिजन शीत, वायु, आतप आदि कष्टोंको सहते हैं उस कारणसे उन निःसंग मुनि द्वारा शरीर में अनादर-निर्ममत्व किया जाता है । अर्थात् जो शीत आदि परीषहोंको सहता है उसके शरीरका ममत्व नहीं रहता है ।।१२२८।।