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मरणकण्डिका लभते यातनाश्चित्रा ग्रंथहेतून्भवान्तरे । संक्लिश्यत्याशया ग्रस्तो हाहाभूतोऽर्थ लुब्धधीः ।।१२२२॥ प्रमीभिरखिलषग्रंथत्यागी धिमुख्यते । भूरिभिस्तद्विपक्षश्च निलयोक्रियते गुगः ॥१२२३॥ अंकुशो गतसंगत्वं विषयेभनिवारणम् । इंद्रियाणां परागुप्तिः पुरोणाभिच खातिका ।।१२२४॥ विषयेभ्यो दुरतेभ्यस्त्रस्यति नजितः । अल्पमंत्रौषधो मर्त्यः सर्पेभ्य इव सर्वदा ।।१२२५।।
धन में लुब्ध बुद्धिवाला पुरुष भवांतरमें भी अनेक यातनाओंको प्राप्त होता है, धनकी हाय-हाय करता है, परकीय ग्रस्त हुआ सदा ही संक्लेश करता रहता है ।।१२२२॥
___इसप्रकार यहांतक परिग्रह धारण करने में जो दोष होते हैं उनका वर्णन किया, आगे जो परिग्रहका त्याग कर देता है उसके उक्त दोष नहीं होते एवं दोषके विपक्षी गुण प्राप्त होते हैं ऐसा प्रतिपादन करते हैं
परिग्रहका त्यागो इन समस्त दोषोंसे छूट जाता है और दोषोंसे विपरीत गुणोंका निलय स्थान बनता है अर्थात् कृपणता, निदा, पापसंचय आदि दोष तो नष्ट हो जाते हैं और उनके विपक्षीभूत जो उदारता, प्रशंसा, पुण्य संचय, निःस्पृहः आदि गुण हैं वे प्राप्त होते हैं । । १२२३।।
परिग्रहसे रहित होना रूप जो गुण है वह मानो विषयरूपी हाथीको रोकनेवाला अंकुश ही है तथा नगरोंकी रक्षा करनेवालो परिधाके समान इन्द्रियों को परम गुप्ति है अर्थात् जिसके परिग्रह नहीं है वह विषयों में नहीं फंसला तथा समस्त इन्द्रिपां भी उसके वश में हो जाती हैं ।।१२२४।।
परिग्रहका त्यागो सदा दुरंत पंचेन्द्रियके विषयोंसे भयभीत रहता है जैसे जिसके पास मंत्र औषधि अल्प है ऐसा मनुष्य सोसे भयभीत रहता है ।। १२२५।।
भावार्थ-जिसको सोका विष दूर करने का ज्ञान नहीं है, मंत्र औषधि आदि का प्रयोग नहीं जानता है वह पुरुष साँसे युक्त बनादिमें बहुत सावधानीसे रहता है ।