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________________ अनुशिष्टि महाधिकार [ ३४५ देहस्याक्षमयस्वेन देहसौख्याय गहतः । अक्षसौख्याभिलाषोऽस्ति सकलस्य परिगृहः ॥१२१६॥ रक्षणस्थापनाचीनि कुर्वाणोऽर्थस्य सर्वदा । निरस्ताध्ययनो ध्यानं व्याक्षिप्तः कुरुते कथम् ॥१२२०॥ अर्थप्रसक्तचित्तोऽस्ति निःस्थो बहुषु जन्मसु । प्रासार्थमपि कर्माणि नियानि कुरुते सदा ।।१२२१॥ बंधन, पोहन आदि रूप घात किया जाता है और उस निमित्तसे नि:संशय ही पाप बंध होता है । भाव यह है कि दास दासी आदिको खेतो आदिमें नियुक्त करते हैं तब वे जीवोंका घात करते हैं उससे उन दासादिको पाप बंध होता है और उनका स्वामी दासादिको उक्त कार्यमें लगाता है अतः स्वामीको भी पापबंध होता है, इसतरह दोनोंको पापका बंध होता है ।।१२१८।। यह शरीर इन्द्रियमय है अर्थात् पांचों इन्द्रियोंका अभिन्न भूत आधार है, शरीरको सुख हो इस हेतुसे वस्त्र आदिको मनुष्य ग्रहण करता है अर्थात शरीरको धूप, हवा आदिसे बाधा न होवे एतदर्थ वस्त्र आदिको धारण करता है, इसतरह परिग्रहधारीके इन्द्रिय सुखकी अभिलाषा-इच्छा रहती है और इच्छा नियमसे पापबंधका कारण है ।।१२१९।। सर्वदा धनका संरक्षण रखना उठाना आदि कार्योंको करनेवालेके शास्त्रका अध्ययन नहीं होता, व्याकुल चित्तवाला पुरुष ध्यानको कैसे कर सकता है ? ॥१२२०।। भावार्थ-परिग्रह संरक्षण में लगे हुए व्यक्तिको स्वाध्याय करने का अवसर नहीं मिलता है उसका समस्त समय परिग्रहके संमार्जन आदिमें नष्ट होता है। चिस भी आकुल व्याकुल रहता है अत: एकाग्रचित्त रूप ध्यान भो परिग्रहधारीके संभव नहीं है । जो व्यक्ति सदा परिग्रहमें ही आसक्त मनवाला होता है उसको बहुत जन्मों में दरिद्रता आती है अर्थात परिग्रह में आसक्ति रखनेवाला जीव भव-भवमें दरिद्री बनता है, वह भोजनके लिये सदा निंद्य कार्योंको करता है, अर्थात् जूते उठाना, पगचंपी करना, भार ढोना आदि खोटे काम करता है तथा उसे ग्रास-पासके लिये भीख मांगनी पड़तो है ॥१२२१।।
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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