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________________ ३४४ ] मरणकण्डिका उन्मत्तो बधिरो मूको द्रव्ये नष्टे प्रजायते । चेष्टतो पुरुषो मतुं गिरिप्रपतनादिभिः ॥ १२१४॥ चैलाक्योऽखिला ग्रंथाः संसर्जति समंततः । संति समिहिताश्चित्रास्तस्मिन्झांगतुकास्तथा ॥ १२१५ ।। छंद स्रग्विणी बंधने छोटने छेदने मेदने पाटने धूनने चालने शोषणे । वेष्टने क्षालने स्वीकृती क्षेपणेऽर्थस्य पोडा परा जायते बेहिनाम् ।।१२१६ ॥ तेभ्यो निरसने तेषां वा योनिवियोजना | दोषा मद्द नसंघट्टथितापमरणावयः सविता गितो घ्नश्ति स्वयं संसक्तमानसाः । गृहीतुर्जायते पापं तनिमित्तमसंशयम् ॥१२१८ ।। ।।१२१७।। है ।।१२१३।। धनके नष्ट हो जानेपर वह पुरुष पागल हो जाता है, बहिरा गुरंगा होता है और अंत में पहाड़ आदिसे गिरकर मरने की चेष्टा करता है ।। १२१४ ।। ओढने आदिके वस्त्र आदि जितने परिग्रह हैं वे सब ही चारों ओरसे संमूर्च्छन जीवोंसे सहित हैं, नवीन विचित्र विचित्र जीव भी उनमें उत्पन्न होते रहते हैं ।। १२१५।। भावार्थ- वस्त्र आदि परिग्रहोंमें संमूच्र्छन जीव उत्पन्न होते हो रहते हैं जैसे वस्त्र में जूंं, दोमक आदि उत्पन्न होते हैं । धान्य में लट, घुन आदि लग जाते हैं । खाद्य पदार्थ अधिक दिन होनेपर उनमें रसज संमूर्च्छन जीव उत्पन्न होते हैं । इसीप्रकार अन्य वस्तुनोंमें भी जीव उत्पन्न होते हैं । परिग्रह धारी पुरुष जब अपने धन धान्य आदि परिग्रहों का बंधन करना-बांध देना, छोड़ना, छेदना, भेदना, उखाड़ना, हिलाना, छानना, सुखाना, वेष्टित करना, धोना पहनना, फेंकना यादि क्रियायें करता है तब उन परिग्रहों में होनेवाले जीव एवं उनके आसपास में रहनेवाले जीवोंको बड़ी भारी पीड़ा होती है ।।१२१६|| जब वस्त्रादि परिग्रहों से उन जीवोंको निकालते हैं तब नियमसे उनका योनि स्थान - उत्पत्ति स्थान बदलता है और उससे उन जीवोंका मद्दन संघट्टन, परिताप और मरण हो जाया करता है ।। १२१७ ।। दास दासी आदि सचित्त परिग्रह जो कि स्वयं भी धनमें आसक्त मनवाले हैं वे जीवोंका घात करते हैं अथवा उन सचित परिग्रहरूप दास आदिका उनके स्वामी द्वारा
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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