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________________ अनुशिष्टि महाधिकार [३४३ अवशस्य नरस्याओं हठतो बलिभिः परः । दायास्तस्कर पेस्त्रायमाणोऽपि लुटचते ॥१२०६।। कलि कलकलं वैरं कुरुते नाथते परं । म्रियते 'मार्यते लोकहस्यते चार्थलंपटः ॥१२१०॥ कृशानुमूषिकांभोभिः संचितोऽर्थो विनाश्यते । सत्र नष्टे पुनर्बाद वह्मते शोकवह्निना ॥१२११॥ छंद उ त विलंबितश्वसिति रोदिति सीवति धेपते गतवति दधिणे ग्रहिलोपमः । करनिविष्टकपोलतलोऽधमो मनसि शोचति पूत्कुरुतेऽभितः ॥१२१२॥ अंतरे द्रव्यशोकेन पावकेनेव ताप्यते । बुद्धिर्मदायतं बाद मुहह्मत्युत्कंठत राम् ॥१२१३॥ बलवान् अन्य किसीके द्वारा लूट लिया जाता है, परिवारके भागीदार उसके घनको छीन लेते हैं अथवा चोर या राजा द्वारा उसका रक्षित किया हुआ भो धन लूट लिया जाता है ।।१२०६।। धनका लंपटी व्यक्ति दूसरोंके साथ झगड़ा करता है, बकबक करने लगता है, वैर करता है। कभी अन्यसे धनकी याचना करने लगता है । धनको रक्षा करते हुए मर जाता है या अन्य द्वारा मारा जाता है, अधिक लोभी एवं कृपणकी लोक हंसी करते हैं ।।१२१०।। बहुत ही प्रयाससे संचित किया गया धन अग्नि, चहे और जल द्वारा नष्ट किया जाता है उस धनके नष्ट हो जानेपर वह अधिक रूपसे शोक अग्नि द्वारा जलने लगता है अर्थात् अत्यंत कठिनाईसे कमाये हुए घनका नाश हुआ देखकर उस व्यक्तिको बहुत भारी शोक संताप होता है ।। १२११।। जिसका धन नष्ट हुआ है वह पुरुष जोर जोरसे श्वास लेने लगता है, रोता है, खेद करता है, कांपता है । इसतरह धनके चले जानेपर पागलके समान चेष्टा करता है, हाथोंको कपोलपर रखकर वह अधम मन में बड़ा अफसोस करता है, पुकारने लगता है ।।१२१२।। धन-द्रव्यका नाश होनेसे उत्पन्न हुआ जो शोक है उसके द्वारा मनके भीतर संतप्त होता है, जैसे अग्निसे जलनेपर संताप होता है उससे अधिक संताप उसे होता है, उसकी बुद्धि मंद पड़ जाती है, अतिशय रूपसे मोहित होता है तथा उत्कंठित होता
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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