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________________ ३४२ ] मरकण्डिका छंद उपेन्द्रवज्जा प्रियासवित्रीपितृदेहजादौ सदापि विश्वासमनावधानः । न त्रायमारणः सकलां त्रिधामां प्रयातिनिद्रां धनलुब्धबुद्धिः ।। १२०४।१ श्ररण्ये नगरे ग्रामे गृहे सर्वत्र शंकितः । श्राधारान्वेषणाकांक्षी स्ववशो जायते कदा ।। १२०५ ।। धीरेराचरितं स्थानं विविक्त' धनलालसः । विहाय भूरिलोकानां मध्ये गेहीव तिष्ठति ।।१२०६ ॥ शब्दं केचिदसौ श्रुत्वा सहसोत्थाय धावति । सर्वतः प्रेक्षते द्रथ्यं परामृशति मुह्यति ।।१२०७॥ आरोहति नगं वृक्षमुत्पथेन पलायते । frojengeat भीतो हृदं विशति दुस्तरम् ।।१२०८ ।। धनमें लुब्ध हुई हैं बुद्धि जिसकी ऐसा पुरुष अपनी स्वयंकी पत्नी, माता, पिता, पुत्री आदिमें विश्वास नहीं करता, सदा स्वयं हो धनकी रक्षामें लगा रहता है, तीन प्रहर प्रमाण समस्त रात्रिमें निद्रा नहीं लेता है || १२०४ || धनका लोभी धनकी रक्षा के लिये उपयुक्त स्थानको खोजता रहता है, अरण्य में, नगर में, ग्राममं, घर में सर्वत्र ही शंकित रहता है कि मेरा धन कोई देख न लेवे चुरा न लेवे ? वह स्ववण-स्वाधीन कब होता है ? अर्थात् नहीं होता सदा घनके आधीन रहता है ।। १२०५ ॥ धनका लोभी पुरुष धीर वीर महापुरुषों द्वारा जो स्थान सेवित किया जाता है ऐसे विविक्त एकान्त स्थानको छोड़कर बहुत से लोकोंके मध्य में गृहस्थवत् रहता है ( क्योंकि उसे डर लगता है कि इस एकांत स्थान में मेरा धन कोई चुरा नहीं लेवे ) ।। १२०६ ।। धनलुब्ध मानव रात्रिमें किचित् भी शब्द सुनता है तो तत्काल उठकर भय से भागने लगता है, चारों ओर देखने लगता है कि कोई धन चुराने आया तो नहीं ? अपने धनको बार-बार छूकर देखता है कि वह कहीं चला तो नहीं गया | धन पर सदा मोहित रहता है ।। १२०७ || मेरा धन चोर ले जायगा इस भय से वह परिग्रहवान् पुरुष पर्वत पर चढ जाता है, वृक्षपर चढ़ जाता है, ऊबड़ खाबड़ खराब रास्ते से भाग जाता है । जीव जन्तुका घात करते हुए कहीं घुस जाता है, भयसे कभी अगाव सरोवर में प्रविष्ट होता है ।। १२०८।। उस धनके परवश हुए पुरुषका धन जबरदस्ती
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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