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________________ अनुशिष्टि महाधिकार [ ३४१ हाहाभूतस्य जीवस्य किं सुखं तृप्तितो विना । प्राशया ग्रस्यमानस्य पिशाच्येव निरंतरम् ॥१२०२।। छेद स्रग्विणीहन्यते तायते बध्यते रुध्यते मानवो वित्तयुक्तोऽपराधं विना । पक्षिभिः कि न पक्षी गृहोतामिषः खाद्यते लुच्यते दोषहोनः परः ।।१२०३॥ देखकर दंग रह गया तथा इतने धनके होते हुए भी लकड़ियां इकट्ठी करने जैसे निंद्यकार्य में प्रवृत्त देखकर उसके चाहको दाहपर बड़ा खेद भो हुआ । राजा जब वापिस जाने लगा तब सेठानी मागवणे संठने हाथमें रत्नोंका भरा सुवर्णथाल राजाको भेटमें देने के लिये दिया । सेठका सारा रक्त मानों सूख हो गया इतने रत्नोंके देते समय उसके दोनों हाथ लोभ और क्रोध के मारे कांपने लगे, राजाके तरफ थाल करते वक्त उसके हाथ नाग फणके सदृश राजाको दिखाई पड़े । राजा समझ चुका था कि यह सेठ महालोभी, कृपण, नीच एवं निंद्य है उसके भावोंके अनुसार उसके हाथोंका परिवर्तन देखकर राजाने उसकी निंद्य भावना एवं परिग्रह लोभकी बहुत निंदा की और "यह फण हस्त है" ऐसा उसका नामकरण करके राजा अपने महल में लौट आया । इधर सेठ धन कमाने हेतु विदेश गया था वहां से लौटते समय समुद्र के मध्य उपाजित धनके साथ डूब गया और परिग्रहके महालोभके कारण मरकर नरकमें चला गया । कथा समाप्त । जिसको धनकी हाय-हाय लगी है ऐसे पुरुष को धन मिल भी जाय किन्तु तृप्ति नहीं होती और तृप्तिके बिना क्या सुख ? वह तो आशा द्वारा सदा ग्रस्त रहता है। जैसे किसीको पिशाची लग जाय तो वह निरंतर दुःखो रहता है वैसे आशा-मुझे यह मिल जाय, अमुक वस्तुको प्राप्ति होनी चाहिये इसप्रकारको आशा पिशाचीसे ग्रस्त मानव धनके रहते हुए भी कभी सुखी नहीं होता ।।१२०२॥ धनिक पुरुष अपराधके बिना भी किसी अन्य धनके इच्छुक व्यक्ति द्वारा मारा जाता है, ताड़ित होता है, बांधा जाता है, रोका जाता है, ठोक ही है ! देखो ! जिसने मांसको ग्रहण किया है ऐसा पक्षी दूसरे पक्षियोंका कुछ अपराध दोष नहीं करता किन्तु अन्य पक्षियों द्वारा क्या खाया नहीं जाता, नोचा नहीं जाता? जाता ही है ॥१२०३॥
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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