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________________ ३५० ] मरणकण्डिका इत्थं कृतक्रियो मुच विषयं सार्वकालिकम् । तृष्णामाशां त्रिधा संगं ममत्वं त्यज सर्वदा ॥१२३७।। समस्तग्रंथनिर्मुक्तः प्रसन्नो निर्वृताशयः । यत्प्रीतिसुखमाप्नोति तत्कुतश्चक्रवर्तिनः ॥१२३८॥ छंद शालिनीगद्धयाकांक्षकारणं सेवते यच्चकी सौख्यं रामपाकं पितृप्ति । सौख्यस्येवं नास्तसंगस्य तुल्यं स्वस्थोऽस्वस्थैः सौख्यमाप्नोति कुत्र ॥१२३९।। - - -- --..-- भो यते ! इस संसारमें जितने कोई भी परिग्रह हैं वे आराधना या समाधिको विराधना करनेवाले हैं उन सभी परिग्रहोंसे सर्वथा निवृत्त होवो-दूर हो जाओ ! तुम सर्वत्र निःस्पृह होकर शरीरको छोड़ो ॥१२३६।। अहो क्षपकराज ! इसप्रकार आराधना संबंधी समस्त क्रियाओंको कर दिया है जिसने ऐसे तुम सार्वकालिक अर्थात् तीन कालीन धनादि विषयोंको छोड़ो तथा लालसा, आशा परिग्रह और ममत्वको मन, वचन, कायसे सर्वदा त्याग दो ।।१२३७।। भावार्थ-ये मनोज्ञ विषय इसतरहके वस्त्रादि आगे आगे बढ़ते रहें इसप्रकार के भावको आशा, कहते हैं । ये धनादिक मेरेसे किंचित् भी दूर नहीं होने चाहिये इसप्रकारके भाव तृष्णा कहलाती है । जो समस्त परिग्रहोंसे निर्मुक्त है, परिग्रहको चिंतासे रहित होनेके कारण प्रसन्न है, किसीप्रकारकी आगामी कालीन व्याकुलता नहीं होने से निर्वृत्ताशय है उस मनिराजको जो परम प्रीति और सुख प्राप्त होता है वह प्रोति और बह सुख चक्रवर्तीके भी कहां है ? ।।१२३८।। चक्रवर्ती जो सुख भोगता है वह मद्धि-लंपटता आकांक्षा-इच्छाका कारण है अर्थात् उस सुखसे अधिक अधिक लंपटता और इच्छायें बढ़तो है, रागरूप फलवाला है और अतृप्ति कारक है । ऐसे चक्रवर्ती के सुखकी तुलना निष्परिग्रही मनिके सुख के साथ नहीं हो सकती । क्योंकि मुनिका सुख तो आत्मीक है वीतरागरूप है, मृद्धि कारक नहीं है । स्वस्थ-नीरोग पुरुष जो सुख प्राप्त करता है क्या उसको रोगी पुरुष प्राप्त कर सकता है ? नहीं ! इसीप्रकार मुनिके वीतराग शांत भाव रूप सुखको चक्रवर्ती नहीं
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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