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________________ अनुशिष्टि महाधिकार [ ३५१ छंद-सारंगसिद्धति दुःखानि नश्यंति शर्माणि, पुष्यन्ति कर्माणि ऋचन्तिचित्राणि । संगेऽगृहीते यतःसंयतस्यापि, हेयस्ततः सर्वदासौ पटिष्ठेन ।।१२४०॥ इति परिग्रहत्याग व्रतं । साधयंति महाथं यन्महाभः सेवितानि यत् । महांति यत्स्वयं सन्तो महाव्रतान्यतो विदुः ॥१२४१॥ रक्षणाय मता तेषां निवत्ती रात्रिभुक्तितः । राद्धांतमातरश्चाष्टौ सर्वाश्चापि च भावनाः ।।१२४२॥ प्राप्त कर सकता ॥१२३६।। परिग्रहोंका त्याग करनेपर या परिग्नहोंको ग्रहण नहीं करनेपर मुनि सिद्ध हो जाते हैं, उनके समस्त दुःख नष्ट हो जाते हैं, शर्म, सुख, शांति पुष्ट होती है, अनेक कर्मों के बंधन टूट जाते हैं, जिसकारणसे यह लाभ है उसकारणसे संयत मनिके वह परिग्रह नहीं होता है । अत: चतुर पुरुष द्वारा परिग्रह सर्वदा त्याज्य है ।। १२४०।। पांचवें महाव्रतका वर्णन पूर्ण हुआ । महावत शब्दकी निरुक्ति एवं अन्वर्थता ये अहिंसादि व्रत महान अर्थ महापुरुषार्थ या महा प्रयोजन जो कर्म माश है उसको सिद्ध करते हैं, जो महापुरुष तीर्थकर गणधर आदिके द्वारा सेवित-आचरित हैं और जो स्वयं महान् हैं इन कारणोंसे इन व्रतोंको "महाव्रत" कहते हैं ।।१२४१॥ ___ इन पांचों महावतोंकी रक्षा करने के लिये रावि-भोजनसे निवृत्ति कही गयी है तथा उन्हींके रक्षा हेतु सिद्धांत में कही गयी आठ प्रवचन माता है तथा सभी भावनायें भो बतलायी हैं ॥१२४२।। विशेषार्थ-रात्रि भोजन करने से हिंसा होती है एषणा समितिका पालन नहीं होता क्योंकि दाता द्वारा दिये गये प्राहारका शोधन नहीं हो सकता । आठ प्रवचन मातायें भी महाप्रतोंकी रक्षा करती हैं । पांच समिति और तीन गुप्तिको प्रष्ट प्रवचन मातृका कहते हैं। प्रवचन रत्नत्रयको कहते हैं, रत्नत्रय धर्मकी जो माताके समान रक्षा करे अर्थात् जैसे माता पुत्रको पापसे बचाती है वैसे समिति गुप्ति रूप मातायें ब्रत
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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