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________________ ३५२ ] मरणकण्डिका हिंसादीनां मुनेः प्राप्तिः पंचानां सहशंकया । विपत्तिर्जायते स्वस्य रात्रिभुक्तेस्तथा स्फुटम् ॥१२४३।। मनसो दोषविश्लेषो मनोगुप्तिरितिष्यते । वाग्गुप्तिश्चाप्यलोकानिवृत्तिमौनमेव च ॥१२४४॥ कायक्रियानिवृतिर्वा देहनिर्ममतापि वा । हिंसाविन्यो निवृत्तिर्वा वपुषो मुप्तिरिष्यते ॥१२४५॥ पुरस्य खातिका यद्वक्षेत्रस्य च यथा वृतिः । तथा पापस्य संरोधे साधूनां गुप्तयो मताः ॥१२४६॥ रत्नत्रय रूप पुत्र की रक्षा करती हैं । महाव्रतोंको दृढ़ताके लिये पच्चीस भावनायें भी आगममें कही हैं। रात्रि भोजनसे मुनिके शंकाके साथ हिंसादि पांच पापोंकी प्राप्ति होती है, अर्थात मुनिके शंका होतो है कि मेरे से हिंसादि दोष हुए या नहीं और पांचों पापोंका दोष लगता है तथा रात्रि में आहारार्थ गमन करनेमें ठूट, कंटक आदिसे स्वयं को विपत्ति आती है ।।१२४३।। मनोगुप्ति और वचन गुप्तिका लक्षण--- मनके रागादि दोष नष्ट होना मनोगुप्ति कही जाती हैं और असत्यसे निवृत्त होना अथवा मौन रहना वचन गुप्ति कहलाती है ॥१२४४।। कायगुप्ति का लक्षणशरीरको क्रिया-गमन, खड़े होना, बैठना, हाथ पांव फैलाना आदिसे निवृत्त होना-दूर होना कायगुप्ति है अथवा शरीर में निर्ममत्व हो जाना या हिंसादि पापोंसे निवृत्त होना कायगुप्ति मानो जाती है ।।१२४५।। जिसप्रकार नगरको रक्षाके लिये खाई होती है और खेतकी रक्षाके लिये बाड होतो है उसप्रकार साधुओंके पापके निरोधके लिये गुप्तियां मानी हैं अर्थात् जैसे नगरके चारों ओर खाई होने से नगरमें शत्रु सेना नहीं घुसतो । खेतमें कांटे आदिको बाड़ होनेसे पशु नहीं घुसते वैसे गुप्ति के द्वारा पापका निरोध होता है ॥१२४६।।
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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