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भरणकण्डिका
पुवेदं क्रमतश्च्छित्वा शुक्लध्यानमहासिना। क्रोधं संज्वलनं मान मायां संज्वलनाभिधाम् ॥२१७०॥ सूक्षम लोभगुणस्थाने सूक्ष्मलोभं निशुभप्ति । स निद्राप्रचले क्षीणमोहस्योपान्तिमे ततः ॥२१७१॥ पंचज्ञानावतोस्तत्र चतस्रो वर्शनावृतोः । पंच विघ्नानसी हन्ति चरमशि चतुर्दश ॥२१७२।। हुत्वैकत्ववितर्काग्नौ घातिकर्मेन्धनं सुधीः । वर्शकं सर्वभावामां केवलज्ञानमश्नुते ॥२१७३॥ अनंतं दर्शनं झानं सुखं वीर्यमनश्वरम् । जायते तरसा तस्य चतुष्टय मखंडितम् ॥२१७४॥ अनंतमप्रतीबंध निःसंकोचमनिट्रियम् । लिरकार केगलबार विहान्यानलमजल ॥२१७५॥
गुणस्थानमें नामकर्म तेरह, दर्शनावरणकी तीन और मोहनीय कमको बीस इसतरह छत्तीस प्रकृतियोंका नाश करते हैं ॥२१७०॥
पुन: वे मुनिराज सूक्ष्म सापराय नामके दसवें गुणस्थानमें प्रविष्ट होकर सूक्ष्म लोभको नष्ट करते हैं, तदनंतर क्षीणकषाय नामके बारहवें गुणस्थान में आकर उसके द्विचरम समय में निद्रा और प्रचला प्रकृतिका नाशकर चरम समय में पांच ज्ञानावरण की चार दर्शनावरणकी और पांच अंतराय कर्मको इसतरह दो और चौदह कुल मिलाकर सोलह कर्म प्रकृतियोंका नाश करते हैं ॥२१७१॥२१७२।। इसप्रकार वे बुद्धिमान तपोधन एकरव वितर्क अवोचार शुक्ल ध्यानरूप अग्निमें घाती कर्मरूप इंधनको भस्मसात करके प्तमस्त द्रव्य और उन अनंतानंत द्रव्योंकी अनंतानंत पर्यायोंको जानने देखनेवाले केवलज्ञान और केवलदर्शनको प्राप्त करते हैं ।।२१७३।। उन अरिहंतोंके शीघ्र ही अनंत ज्ञान, प्रनंतदर्शन, अनंतसुख और अनंतवीर्य ये अखंडित अविनश्वर चतुष्टय उत्पन्न होते हैं ।।२१७४।।
यह केवलज्ञान अनंत है-कभी भी नष्ट नहीं होगा, अप्रतीबंध-रुकावट रहित है, संकोच विस्तार रहित है, इन्द्रियोंकी सहायतासे रहित अनिन्द्रिय है, कम रहित है,