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मरणकण्डिका
कारण पकड़ा नहीं जाता था। वह दिन को कुष्ठो का रूप धारण कर किसी शून्य मन्दिर में गरीब बनकर रहता था और रात्रिमें दिव्य मनुष्य का रूप धारण कर चोरी करता था। एक दिन उसने अपने दिव्य रूप से राजा को मोहित कर उनके देखते देखते हार चुरा लिया। राजाने कोतवाल को बुलाकर सात दिन के भीतर चोर को पकड़ लाने की आज्ञा दो । छह दिन व्यतीत हो जाने पर भी चोर नहीं पकड़ा गया, सातवें दिन देवी के सुनसान मन्दिर में एक कोढो को पड़ा हुआ देखकर कोतवाल को उसके ऊपर सन्देह हुआ और उसने उसे बहुत अधिक मार लगाई परन्तु कोठी ने अपने को चोर स्वीकार नहीं किया। तब राजा ने कहा-अच्छा मैं तेरा सर्व अपराध क्षमा करता हूँ और अभय का वचन देता हूँ तू यथार्थ बात बतला दे । अभय की बात सुनते ही कोढी, रूपधारी विद्य च्चर बोला-महाराज ! मैं आभीर प्रान्त के अन्तर्गत वेनातट शहर के राजा जितशत्रु और रानी जयावती का विद्य च्चर नाम का पुत्र हूँ और यह यमदण्ड उसो राजाके यमपाश कोतवाल का पुत्र है । मैंने बचपन में विनोद के लिए चौर्यशास्त्र का अध्ययन किया था और अपने मित्र यमदण्ड से कहा था कि जहाँ आप कोतवाली करेंगे, वहीं मैं चोरी करूंगा । हम दोनों के पिता अपना अपना कार्य भार हम लोगों को सौंपकर दीक्षित हो गये । मेरे भय से यमदंड यहां भाग आया और अपनी बचपन की प्रतिज्ञा पूर्ण करने के उद्देश्य से मैंने भी यहाँ आकर चोरो का कार्य प्रारम्भ कर दिया । विद्यु च्चर को बात सुनकर राजा बामरथ बड़ा प्रसन्न हुआ। विद्य च्चर अपने मित्र यमदण्ष्ठ को लेकर अपने नगर चला गया। किन्तु इस घटना से वैराग्य हो गया और उसने अपने पुत्र को राज्यभार सौंपकर जिनदीक्षा ग्रहण कर ली। संघ सहित विहार करते हुए विद्य च्चर मुनिराज ताम्रलिप्त पुरी को ओर आये । संघ सहित नगरमें प्रवेश करने को थे कि वहां की चामुण्डा देवो ने कहा-हे साधो ! अभी मेरो पूजा विधि हो रही है । आप भीतर मत जाइये । इसप्रकार रोके जाने पर भी महाराज श्री अपने शिष्यों के आग्रह से भीतर चले गये और परकोटे के पास की भूमि देखकर बैठ गये तथा ध्यानारूढ़ हो गये। अपनो अवज्ञा जानकर देवी को क्रोध आगया और उसने कबूतरों के आकार के खून पीने वाले डांस मच्छरों को सृष्टि करके मुनिराज पर घोर उपसर्ग किया । मुनिराज ने यह उपसर्ग बड़ी शान्ति से सहन किया और अपने मन को चारों आराधनाओं में रमाते हुए मोक्षनगर के स्वामो बने ।
कथा समाप्त ।