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मरणकण्डिका
हतं मुष्टिभिराकाशं विहितं तुषखंडनम् । सलिल मथितं तेन संक्लेशो येन सेवितः ॥१७०८।। पूर्व मुक्त स्वयं द्रव्यं काले न्यायेन तत्स्वयं । प्रधर्मणस्य किं दुःखमुत्तमर्णाय यच्छतः ॥१७०६॥ कृतस्य कर्मण: पूर्व स्वयं पाकमुपेयुषः । विकारं बुध्यमानस्य कस्य बुःखायते मनः ॥१७१०॥ पूर्वकर्मागतासातं सहस्व त्वं महामते ! । ऋणमोक्षमित्र ज्ञात्वा मा मूमनसि दुःखितः ॥१७११॥
बंध होगा । आर्तध्यान से तिर्यंचगतिका बंध होगा अर्थात् अमनोज पदार्थको दूर हटाने के लिये बार बार चित करने का अगिट संयोग नामका आर्तध्यान एवं मेरा रोग कब दूर हो ? कौनसा उपाय करू ? औषधि कहाँ मिलेगी इत्यादि रूप चिंतन पोड़ा चिंतन नामका आतंध्यान है । इससे तिर्यंचगतिका बंध होता है ।
__कोई अज्ञानी संक्लेश करता है तो समझना चाहिये उसने मुष्टियोंसे आकाश को मारा, भूसेको भूसलसे कूटा और पानोको बिलोया है अर्थात् जैसे आकाशको मारने से आकाशका घात नहीं होता, भूसेको कूट नेसे चावल नहीं निकलता, जलको बिलोनेसे मक्खन नहीं मिलता, वैसे संक्लेश करने से पीड़ा शांत नहीं होती है, उसके लिये संक्लेश करना व्यर्थ है, जैसे भूसा कूटना आदि व्यर्थ है ।।१७०८।।
जैसे कोई पुरुष समयपर कर्ज लेता है उसका उपभोग करता है परन्तु जब उचित काल व्यतीत होनेपर उस कर्जसे लाये धनको साहूकारके लिये देता है उसको देते समय या खेद होता है ? क्योंकि वह जानता है कि कर्जसे लाया धन धनिकको लोटाना ही है ।।१७०६।। उसीप्रकार पूर्व जन्ममें स्वयंने पापकर्मका संचय किया अब वह उदयको प्राप्त हो चुका है, उस कर्मके उदय विकारको जानते हुए किस पुरुषका मन द :खित होगा ? अभिप्राय यह है कि जब कर्मोदय आ चूका है तो उस वक्त शांत परिणामसे उसे भोगना हो श्रेयस्कर है ।।१७१०।।
हे महामते ! पूर्व जन्म में बाँधा हुआ असाता कर्म उदयमें आया है उसको तुम शांतिपूर्वक सहन करो। ऐसा विचार करो कि भला हुआ । कर्जा उतर गया !