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सारणादि अधिकार
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१वं शुमा महाद्य ललितं स्फुटम् । वोषो नैवात्र कस्यापि मत्वा वखासिका त्यज ॥१७१२॥ अभूतपूर्वमन्येषामात्मनो यदि जायते । तदा दुःखासिका फतुं मानसे युज्यते तव ॥१७१३।। अवश्यमेव वातव्यं काले न्यायेन यच्छतः । सर्वसाधारणं दंडं दुःखं कस्य मनीषिणः । १७१४।। सर्वसाधारणं दुःखं दनिवारमुपागतम ।। सहमानो मुने ! मामूर्तु:खितस्त्वं भज स्मृतिम् ॥१७१५॥
अर्थात् जैसे किसीसे पहले कर्ज लिया था उसका समय समाप्त होनेपर उसको चुका देते हैं और भार रहित होते हैं, वैसे पहले मैंने ही कर्म बांधा था अब उदय में पाकर खिर जायगा तो आगे भार नहीं रहेमा ऐसा जानकर मनमें दु :खी मत होवो ।।१७११॥
भो यते ! मैंने स्वयंने पहले कर्म किया था उसका आज स्पष्ट रूपसे फल मिला है, इसमें किसीका दोष नहीं है, इसप्रकार मानकर दुःखको छोड़ दो ।। १७१२।।
यह पापकर्मका उदय एवं उससे होनेवाली वेदना यदि अभूतपूर्व होती अपने स्वयंको अन्य जीवोंको कभी भी नहीं हुई होती तो तुम्हारा मनमें दुःखी होना उचित था किन्तु, यह तो सर्वजन साधारण बात है, जैसे राजदण्ड-कर टैक्स यथासमय अवश्य देने योग्य होता है, उस दण्डको न्यायपूर्वक समयपर देते हुए किस मनीषिको दुःख होगा ? किसीको भी नहीं होगा। इसीप्रकार कर्म बंध करनेके बाद उसका फल अवश्य भोगना होता है यह सर्व साधारण बात है उस कर्मफल को भोगते समय किस बुद्धिमान को दुःख होगा ? किसीको नहीं ।। १७१३।।१७१४।।
__ भो मुने ! कर्मोदयसे प्राप्त यह दुःख सर्व साधारण है एवं दनिवार है, अतः उसको भोगते हुए तुम दुःखी मत होबो । हे क्षपक ! तुम शीघ्र ही स्मृतिको प्राप्त होयो ।।१७१५॥
पांचों परमेप्ठियोंके साक्षोपूर्वक ग्रहण किये हुए प्रत्याख्यान-आहार त्यागका भंग करने की अपेक्षा संयतको मृत्यु होना श्रेष्ठ है भो क्षपक ! इसप्रकार तुम निश्चित