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________________ मरणकण्डिका साक्षीकृत्य गृहोतस्य पंचापि परमेष्ठिनः । संयतस्य वरं मत्युः प्रत्याख्यानस्य भंगतः ॥१७१६॥ अप्रमाणयता तेन न्यचकृताः परमेष्ठिनः । कार्यानिवर्तमानेन साक्षीकृतनपा इव ॥१७१७॥ प्रमाणी कुरुते भक्तो यो योगी परमेष्ठिनः । तरसाक्षिकमसौ जातु प्रत्याख्यानं न मुंधति ।।१७१८।। साक्षीकृत्य एवानुजाः तुरीले एरोटिनः । पुनःसद्यो महादोष भूमिपाला इव स्फुटम् ॥१७१६॥ संघतीर्थकराचार्य श्रुताधिकमद्धिकान् । पराभवति योगी च स परांपिकमंचति ॥१७२०॥ समझो ।।१७१६।। पंच परमेष्ठियोंकी साक्षीसे आहार त्याग करके पुन: उस त्यागको स्वीकार नहीं करना छोड़नेके भाव करना या छोड़ देना, इससे तो पंच परमेष्ठियोंका तिरस्कार करना है क्योंकि उनके समक्ष ही व्रत लिया और फिर व्रत पालनको मना कर दिया यह उनका अनादर ही है । जैसे राजाके समक्ष अमुक राजकार्य करूंगा ऐसी प्रतिज्ञा ली और पुनः उस कार्यसे पीछे हटे तो वह राजाका तिरस्कार ही माना जाता है ।।१७१७॥ जो साधु पंच परमेष्ठियोंका भक्त है उनको प्रमाणभूत मानता है वह कभी भी उनके साक्षीस लिये हुए प्रत्याख्यानको नहीं छोड़ता है ।।१७१।। परमेष्ठीके साक्षीसे आहार त्यागकी प्रतिज्ञा लेकर पुनः उसका तिरस्कार करता है तो उस परमेष्ठीको आसादनासे तत्काल उस साधुको महादोष लगता है महान पाप बंध होता है । जैसे राजाके सामने राज्य संबंधी कार्य करनेको प्रतिज्ञा लेकर उस कार्यको न करे तो राजा उसे अपराधो समझकर तत्काल दंड देता है ॥१७१९।। जो साधु संघ, तीर्थकर, आचार्य, उपाध्याय और ऋद्धि संपन्न साधुजनोंका तिरस्कार प्रनादर करता है वह पारंचिक नामके बड़े भारी प्रायश्चित्तको प्राप्त होता है अर्थात् इन संघ तीर्थंकर आदिको आसादना करने पर पारंचिक प्रायश्चित्त द्वारा ही उसको शुद्धि होती है, अन्यथा नहीं ।।१७२०।।
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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