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________________ सारणादि अधिकार तिरस्कृता नपाः संतः साक्षिस्वेऽस्य शरीरिणः । एकत्र वदते दुःखं जिनंद्रा भवकोटिष ॥१७२१॥ मोक्षाभिलाषिणः साधोमरणं शरणं वरम् । प्रत्याख्यानस्य न स्यागो जिनमिद्धाविसाक्षिणः ।।१७२२॥ एकत्र कुरुते दोषं मरणं न भवांतरे । व्रतभंगः पुनर्जातो भवानां कोटिकोटिषु ॥१७२३॥ प्रत्याख्यानमनादाय म्रियमाणस्य देहिनः । न तथा जायते दोषः प्रत्याख्यात्यजने यथा ।।१७२४।। -- - -- - -- --- राजाके कार्यको प्रतिज्ञा लेकर उसको न करे तो उससे राजाका तिरस्कार होता है और तिरस्कारको प्राप्त हुआ राजा उसको धनहरण आदि दुःख देता है वह दुःख केवल उसी एक भवमें होता है किन्तु जो व्यक्ति जिनेन्द्रदेयकी साक्षीसे नियम लेकर उसको छोड़ देता है उससे जिनेन्द्रकी आसादना होती है उससे ऐसे निकाचित कर्म का बंध होता है कि जिसके द्वारा कोटि कोटि भवोंमें दुःख प्राप्त होता है ।।१७२१॥ ___ मोक्षाभिलाषी साधुके मरणकी शरण लेना श्रेष्ठ है किन्तु अहंत सिद्ध आदि परमेष्ठियोंकी साक्षीसे लिये हुए प्रत्याख्यानको छोड़ना श्रेष्ठ नहीं है ।।१७२२।। क्योंकि मरण एक भवमें दोष करता है-भवका नाश करता है किन्तु यदि प्रत्याख्यान व्रतका भग हो जाय तो कोटि कोटि भवोंमें दोष होता है-अनन्त भवों में दुर्गति प्राप्त होती है ।।१७२३।। प्रत्याख्यान व्रतको लिये बिना मरण करनेवाले जोवके वैसा दोष नहीं होता जैसा प्रत्याख्यान व्रतको लेकर फिर छोड़े तो दोष होता है ।।१७२४।। भावार्थ--आहारके त्यागकी प्रतिज्ञा किये बिना जो मरण करता है उसके नत भंगके परिणामरूप संक्लेश नहीं होता इसलिये वह महान् दोषका भागो नहीं है. किन्तु आहार त्यागको प्रतिज्ञा लेकर फिर उसे तोड़ देता है उसके मनमें संक्लेश परिणाम तीव्र होते हैं अतएव वह महादोषी है ।
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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