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________________ ; ] मरकण्डिका हिनस्ति देहिनोऽनार्थं भाषते वितथं वचः । परस्य हरते प्रध्यं स्वीकरोति परिग्रहम् ॥। १७२५।। रत्नत्रयं जगत्सारमाहारार्थं विभुं चति । निस्त्रपो भुवनख्यातं अलिनीकु कुल्॥एछ जिह्व न्द्रियवशस्याशु बुद्धिस्तीक्ष्णापि नश्यति । संपद्यते परायसो योनिमश्लेषलग्नवत् ॥ १७२७॥ धर्मकृतज्ञत्वमाहात्म्यानि निरस्यति । महान्तं कुरुतेऽनर्थं गललग्तो यथा भषः || १७२८ ।। इस संसार में संसारी प्राणी आहारके लिये जीवोंका घात करता है झूठ, वचन बोलता है, पराया धन चुराता है और परिग्रहको स्वीकार करता है ।। १७२५ ।। वैसे ही निर्लज्ज साधु आहार के लिये जगत् में सारभूत ऐसे रत्नत्रयको छोड़ देता है और अपने जगद् विख्यात कुलको मलिन करता है ।।१७२६ ।। भावार्थ -- आहारका त्याग करके पुनः उस आहारको ग्रहण करनेसे रत्नत्रयका नाश होता है क्योंकि परमेष्ठोकी साक्षीसे व्रत लेकर छोड़ा है तो उस व्यक्तिके परमेष्ठी के प्रति श्रद्धाके भाव नष्ट हुए ही तथा नियमका भंग होनेसे चारित्र भी समाप्त हुआ । जो साधु आहारका त्याग कर पुनः ग्रहण करता है उसका अपने जन्मका जो उच्च कुल है वह और दीक्षाका कुल जो आचार्य परंपरा या संघ है वह मलिन होता है क्योंकि लोग अपवाद करते हैं कि अमुक कुलके साधुने अमुक संघके साधुने प्रत्याख्यानका भंग किया है, देखो ! इसने प्रतिज्ञाको तोड़ दिया है इत्यादि । जो मनुष्य जिल्ह्वा इन्द्रियके वर्ग होता है उसकी तीक्ष्ण बुद्धि भो नष्ट हो जाती है, वह आहार लोलुपो व्यक्ति वज्र के बंधन से मानो बंधा हुआ बिलकुल परतंत्र होता है ।।१७२७ ।। भावार्थ - भोजन लंपटी पुरुषके बुद्धि नष्ट होती है अर्थात् अनका लोभी मनमें युक्त अयुक्तका विचार नहीं कर पाता । जिह्वाके वशीभूत हुए मानवको बुद्धि पहले भले ही तीक्ष्ण हो किन्तु जिह्नाको आधीनतासे वह नष्ट होती है, रसोंमें लुब्ध होकर वह पदार्थका यथार्थ निर्णय करने में असमर्थ होता है । आहारके वश होकर मनुष्य रत्नत्रय धर्म, धैर्य, कृतज्ञता और माहात्म्यको भी नष्ट कर डालता है और अपना महान् अनर्थ करता है जैसे मछली जालमें लगे हुए
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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