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सारणादिधिकार
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कुलोनो धार्मिको मानी ख्यातकीतिविचक्षणः । अभक्ष्यं वरुभते वस्तु विरुद्धां कुरुते क्रियाम् ॥१७२६॥ दुभिक्षारिषु माजरोिशिशुमाराहिमानवाः । बल्लभान्यप्यपत्यानि भक्षयन्ति बुभुक्षिताः ॥१७३०॥ ये जन्मद्वितये दोषाः केचनानर्थकारिणः । से जायतेऽखिला जन्तोराहारासक्त वेतसः ।।१७३१।। माहारसंशया श्वन महान्तं सप्तमं परम् । गच्छन्ति तिमयो यातः शालिसिपथोऽपि नष्ट थोः ॥१७३२।।
खाद्य वस्तुके वश होकर उसको खाने जाती है और फंसकर अपने प्राण खोनेरूप महा अनर्थ करती है ॥१७२८।।
___ मनुष्य कुलीन है, धार्मिक है, अभिमानी और प्रसिद्ध कोतिबाला एवं बुद्धिमान है वह भो आहारके वशीभूत हुआ अभक्ष्य पदार्थका सेवन करने लगता है और इसतरह अपने कुल आदिसे विरुद्ध ऐसी क्रिया करता है ।।१७२६।।
क्षुधासे पीड़ित हुए मनुष्य दुर्भिक्ष आदिके समय अन्न के अभावमें बिल्लो, शिशुमार, सर्प और तो क्या मनुष्यका भो भक्षण कर जाते हैं तथा अपने खुदको संतान पुत्र पुत्रीको भी खा जाते हैं ।।१७३०॥
इस विश्वमें उभय जन्मोंमें जो कुछ अनर्थकारी दोष हैं वे सबके सब आहारमें आसक्त चित्तवाले जीवके हो जाते हैं ।।१७३१।।
आहार संज्ञासे महामत्स्य महा भयावह सातवें नरकमें जाते हैं तथा नष्ट बुद्धि तंदुल मत्स्य भी सातवें नरकमें जाता है ।।१७३२।।
विशेषार्थ-स्वयंभरमण नामके अंतिम महासमुद्र में तिमिगलादि महामत्स्य रहते हैं, उनका शरीर बहुत बड़ा-एक हजार योजन लंबा होता है तथा चौड़ा पांच सौ योजन एवं मोटा ढाईसो योजन प्रमाण होता है। वे महामत्स्य आहार लोलुपी हो मुखको खोलकर पड़े रहते हैं छह मासतक भो ऐसे हो रह सकते हैं, बीच में निद्रा भो लेते रहते हैं, मुखमें आये हुए जलचर जीवोंको खाते हैं। छह मास पर्यंत मुखको