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________________ ५०० ] मरकण्डिका चतुरंगबलोपेतः सुभूमः फललालसः । नष्टभोध निजैः साधं ततोऽपि नरकं गतः ।। १७३३॥ खोलकर बैठ जाते हैं अनंतर मुखको बंदकर अंदर में प्रविष्ट हुए जल जंतुस्रोंको खाकर महा उग्र पापका बंध करते हैं और मरकर सातवें नरकके अवधिस्थान नामके बिल में जाते हैं । उन महामत्स्योंके कानोंमें कानके मंलका भक्षण करनेवाले तंदुल जैसे छोटी आकारके मत्स्य रहा करते हैं वे महामत्स्योंके मुखों में आते जाते हुए जल जंतुओंको देखकर सोचते हैं कि ये महामत्स्य मूर्ख हैं मुखको बंद नहीं करते, यदि हमको इतना बड़ा शरीर मिलता तो एक भी जीवको मुखसे बाहर निकलने नहीं देते । इत्यादि हिसानंदी रौद्र व्यान द्वारा वे तंदुल मीन भी सातवें नरक में जाते हैं । चतुरंग बलवाला सुभीम चक्रवर्ती फलोंमें आसक्त होकर अपने परिवार के साथ समुद्र में नष्ट हुआ था और मरकर नरक में गया था ।। १७३३ ।। सुभम चक्रवर्तीकी कथा छह खंडके अधिपति चक्रवर्ती सुभम जिह्वा लोलुपी था, निधियों द्वारा अनेक तरह के भोग उपभोग प्राप्त होनेपर भी वह सदा अतृप्त ही रहता था । एक दिन अधिक गरम खीर परोसने के कारण उसने गुस्से में आकर अपने रसोईये जयसेनको थाली फेंककर मारा, थाली मर्म स्थानपर लग जानेसे रसोईया तत्काल मर गया और अकाम निर्जरा के फलस्वरूप व्यंतरदेव हो गया और कुअवधिज्ञानसे जानकर चक्रीपर कुपित होकर उसको मारने का षडयंत्र रचा । व्यंतरदेवने सोचा कि यह रसनेन्द्रिय के वश में है अतः मधुर फलोंको देकर छलसे मार देंगे। वह देव ब्राह्मण वेषमें चक्रीके पास आया और दिव्य मधुर फलोंको भेंट में देकर अपना परिचय दिया कि मैं समुद्र के उस पार रहता हूँ मैं आपको अपना स्वामी मानता हूं अतः ये मिष्ट फल लाया हूँ । चक्री प्रसन्न हुआ और उसने प्रतिदिन फल लाने को कहा ब्राह्मण वेषधारी देवने कहाराजन् ! आप कृपाकर मेरे उस रम्य स्थानपर चलिये वहां अनेक उद्यान फलोंसे भरे हैं | चक्री उसके साथ चला, समुद्रसे पार होते समय ठोक मध्य समुद्रमें उस देखने अपना परिचय दिया कि अरे दुष्ट ! तुमने मुझे थाली फेंककर मारा था उस समय मैं निर्बल था अब उसका बदला अवश्य लूंगा इतना कहकर देवने नौका समुद्र में डूबा दी ।
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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