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सारणादि प्रधिकार
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प्राहारसंज्ञया भद्र ! कृत्वा पापं दुरुत्तरम् । चिरकालं भवाम्भोधौ प्राप्तो दुःखमनारतम् ॥१७३४॥ कि त्वमिच्छसि भूयोऽपि भ्रमितु भवकानने । दुःखदामशनाकांक्षा येनाबापि न मुचसि ॥१७३५।। पाहारं पल्भमानोऽपि चिरं जीवो न तृप्यति । उन्धुत्तं सर्वदा चित्तं जायते तृप्तितो विना ।।१७३६।। इंधनेनेव सप्तास्तिः सलिलेनेव वारिधिः । गंधसा गृह्यमाणेन जोबो जातु न तृप्यति ।।१७३७।। भोगिनश्चक्रिणो रामा वासुदेवाः पुरंदराः । नाहारस्तुप्तिमायासास्तप्यंत्यत्र परे कथम् ॥१७३८।।
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सुभौम उस अगाध समुद्रमें मरा और नरकमें चला गया । इसप्रकार भोजनकी लंपटता से सुभौमको चिरकाल तक नरकावास जागना पड़ा।
कथा समाप्त । हे भग ! आहार संज्ञासे तुमने अतीतकाल में अत्यंत पापको करके चिरकाल तक संसाररूपी महासमुद्र में सतत् महान दुःखोंको भोगा था ॥१७३४।।
अहो क्षपक राज ! क्या अब भी पुनः तुम संसार वनमें भ्रमण करना चाहते हो ? जो कि आज भी दुःखदायी भोजनकी इच्छाको छोड़ नहीं रहे हो ? ।।१७३५।।
आचार्य महाराज क्षपकको समझाते जा रहे हैं कि यह जीव चिरकाल तक भोजन करे किन्तु वह कभी तृप्त नहीं होता और तृप्ति हुए बिना सदा ही मन में आहार को उत्कंठा बनी रहती है ॥१७३६॥
जैसे ईंधन द्वारा अग्नि तृप्त नहीं होतो जल द्वारा सागर तृप्त नहीं होता, वैसे ही ग्रहण किये गये भोजन द्वारा जीव तृप्त नहीं होता है ।।१७३७।।
महान महान भोग तथा भोज्य पदार्थ जिनके पास मौजूद हैं ऐसे भोग भमिज मनुष्य चक्रवर्ती, बलदेव, नारायण पुरंदर विशिष्ट-आहार द्वारा तृप्तिको प्राप्त नहीं हुए तो फिर अन्य साधारण जोव सामान्य आहार द्वारा किसप्रकार तृप्त हो सकते हैं ? नहीं हो सकते ।।१७३८।।