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सारणादि अधिकार कर्मणा पततीन्न तु परस्य क्ष व्यवस्थितिः । मेरौ पति वातेन शुष्कपत्रं न तिष्ठति ॥१७०३॥ बलीयेभ्यः समस्तेभ्यो बलीयः कर्म निश्चितम् । तबलीयांसि मुदनाति कमलानीव कुजरः ॥१७०४॥ कोक्यमिति ज्ञात्वा दुनिवारं सुरैरपि । मा कार्षीमनिसे दुःखमुदीर्णे सति कर्मणि ॥१७०५॥ विषादे रोदने शोके संक्लेशे विहिते सति । न पोडोपशमं याति न विशेष प्रपद्यते ॥१७०६॥ मान्योऽपि लभ्यते कोऽपि संक्लेश करणे गुणः । केवलं बध्यते कर्म तिर्यग्गतिनिबंधनम् ।।१७०७॥
कर्मोदय आने पर जब इन्द्र भी स्वर्गसे गिरता है-च्युत होता है तो अन्य सामान्य व्यक्ति को क्या स्थिति ? अर्थात् कर्मोदय आनेपर इन्द्र भी द:खी होता है तो सामान्य जीव दुःखी होवे इसमें क्या संशय ? जिस वायु द्वारा मेरुके समान विशाल पर्वत गिरता है उससे क्या सूखा पता ठहर सकता है ? नहीं ठहर सकता ।।१७०३।।
संसारमें एकसे बढ़कर एक बलवान पदार्थ हैं उन सब बलवानोंमें भी अधिक बलवान कर्म है क्योंकि कर्म सभी बलवान पदार्थों को नष्ट कर सकता है, करता ही है, जैसे हाथी कमलोंको मसल देता है, निगल जाता है, नष्ट करता है ।।१७०४॥
यह कर्मोदय देवों द्वारा भी द निवार है रोका नहीं जा सकता है ऐसा जानकर हे क्षपक ! तुम कर्मोदयके आनेपर मनमें द:ख मत करो ।। १७०५।।
विषाद करनेपर, रोनेपर, शोक करनेपर तथा संक्लेश करनेपर भी पोड़ा शांत नहीं होती न उसमें कुछ कमी आती है ।।१७०६।। तथा संक्लेश करना, रोना आदिमे कुछ गुण भी प्राप्त नहीं होता, रोनेसे शोकसे विषादादिस तो उलटे तिर्यंचगति का कारणभूत कर्म बंधता है ॥१७०७।।
भावार्थ-वेदनादिसे आतुर क्षपक मुनिको आचार्य महाराज समझा रहे हैं कि भो साधो ! तम रोग, भूख आदिसे पीड़ित हो क्लेश करोगे तो लाभ कुछ नहीं होगा अर्थात् रोगादिक कम या नष्ट नहीं होंगे इससे विपरीत नवीन असाता कर्मका