SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 532
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४६२ ] मरणाकण्डिका कांक्षतोऽपि न जीवस्य पापकर्मोवये क्षमाः । वेवनोपशमं कतुं त्रिदशाः सपुरंदराः ॥१६६७॥ उदोर्णकर्मणः पोडां शयिष्यति किं परः । अभग्नो वंतिना वृक्षःशशकेन न भज्यते ॥१६६८॥ कर्माण्युदोर्यमाणानि स्वकोये समये सति । प्रतिषेद्धन शक्यन्ते नक्षत्राणीव केनचित् ॥१६६६।। ये शकाः पतनं शक्ता न धारयितुमात्मनः । ते परित्रां करिष्यप्ति परस्य पततः कथम् ।।१७००।। तरसा येन नोयंसे कजरा मवमंघराः । शशकानामसाराणां तत्र स्रोतसिका स्थितिः ॥१७०१॥ शिवशा येन पात्यंसे विक्रियाबलशालिनः । नायासो विद्यते तस्य कर्मणोऽन्यनिपातने ॥१७०२॥ से अति पीड़ित उस व्यक्तिको वेदनाको देव और इन्द्र मिलकर भी दूर नहीं कर सकते ॥१६६७॥ उदीरणाको प्राप्त हुए कर्मसे उत्पन्न हुई पोडा को जब देवेन्द्र भी दूर नहीं कर सकता है तब उस वेदनाको अन्य क्या शांत करेगा ? नहीं कर सकता, जो वृक्ष हाथी द्वारा हो टूट नहीं पाया वह क्या खरगोश द्वारा टूट सकता है ? नहीं टूट सकता। उसीप्रकार देवेन्द्र द्वारा जो वेदना दूर नहीं हुई वह अन्य साधारण जन द्वारा क्या दूर होगी ? नहीं होगी ।।१६९८।। अपने अपने समयपर कर्मोंके उदय में आनेपर उनका रोकना अशक्य है, जैसे यथा समय नक्षत्र उदित होते हैं उन्हें रोकना अशक्य है ।। १६६६।। जब इन्द्रोंका स्वर्गसे च्युत होनेका समय आता है तब वे स्वयं अपनेको वहांसे च्युत होने को रोक नहीं सकते तो फिर गिरते हुए अन्य व्यक्तिकी कैसे रक्षा कर सकते हैं ? नहीं कर सकते ॥१७००॥ जिस जल प्रवाहमें मदोन्मत्त हाथी शीघ्रतासे बहाये चले जाते हैं उस प्रवाहमें कमजोर खरगोशोंकी क्या स्थिति हो सकती है ? नहीं हो सकती ।।१७०१।। जिस कर्मोदय द्वारा बिक्रिया शक्तिसे संपन्न देव स्वर्गसे गिराये जाते हैं(आयुके पूर्ण होनेपर स्वर्गसे च्युत होते ही हैं) उस कर्मको अन्य सामान्य व्यक्तिको गिराने में-दु:खी करने में क्या आयास होगा १ ॥१७०२॥
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy