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________________ [ ४६१ सारणादि अधिकार क्यालोः सर्वजोवानामौषधेन व्यथाशमम । प्रार्थनाप्तेन कि साषोः प्रासुकेन करिष्यति ।।१६६४।। संयतस्य वरं साधोमरणं मोक्षकांक्षिणः । वेदनोपशमं कर्तुं नाप्रासुकनिषेवणम् ॥१६६५।। एकत्र निधनं नाशो न तु भाविषु जन्मसु । असंयमः पुनर्नाशं दत्ते बहुषु जन्मसु ॥१६६६॥ अच्छा वैद्य होता तो मेरा रोग या वेदना शांत हो जाती । वेदनासे छुटकारा तब तक नहीं हो सकता जब तक असाता मंद न हो । अतः भागत वेदनाको शांत भावसे सहना हो श्रेष्ठ है । इससे नूतन कर्मबंध नहीं होगा तथा पुराना कर्म निर्जीर्ण होगा। जब धनवान और असंयमी पुरुष भी रोगको दूर नहीं कर पाते तो सर्व जीवों पर दयाभाव रखनेवाले साधुके याचनासे प्राप्त हुए प्रामुक औषधि द्वारा क्या वेदना शांत की जा सकती है ? ॥१६६४।। विशेषार्थ-मुनिराज छह प्रकारके जीवोंकी दया पालते हैं । उनके पास द्रव्य नहीं रहता, याचना करके प्रासुक औषधि लाकर क्षपक मुनि या अन्य रोगो मुनिकी सेवा करते हैं । राजा आदिके समान उनके पास परिचारक एवं वैद्य सतत् उपस्थित भी नहीं रहते । राजा आदि असंयमो वेदनाके उपशमन चाहे जिस उपायसे करते हैं। किन्तु मुनिजन संयमकी रक्षा करते हुए वेदनाका प्रतिकार करते हैं यदि संयम सुरक्षित न रहे ता ऐसी औषधि ग्रहण नहीं करते हैं । हे क्षपक ! मोक्षके इच्छुक संयमो साधुका मरण हो जाना श्रेष्ठ है किन्तु वेदनाको शांत करने के लिये अप्रासुक औषधिका सेवन कदापि योग्य नहीं है ।।१६९५।। संयमकी रक्षा करते हुए अशुद्ध औषषिका सेवन नहीं किया और उससे मरण हो गया तो वह एक इसी पर्यायका मरण है अागामी जन्मों में तो नाश नहीं है । किन्तु असंयम होगा अर्थात् अशुद्ध औषधि सेवनसे होनेवाला असंयम बहुत जन्मोंका नाश करेगा ।।१६६६।। जीवके पापकर्मका उदय आनेपर इन्द्र सहित देव चाहते हुए भी वेदनाका नाश करने में समर्थ नहीं होते हैं अर्थात जिस जीवका तीव्र पापोदय चल रहा है वेदना
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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