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________________ ४६० ] मरकण्डिका पीडानावकारस्य सोपकारस्य चोदिता । नाभीतस्य न भीतस्य जंतोर्नश्यति कर्मणि ।। १६६१ ॥ औषधानि सवोर्याणि प्रयुक्तान्यपि यत्नतः । पापकर्मोदये पुंसः शमयंति न वेदनाम् ॥१६९२ ।। असंयमप्रवृत्तानां पार्थिवादिकुटु खिनाम् । पोडा तरिः शक्तो निराकर्तुं न कर्मजाम् ।। १६६३।। असाता कर्मके उदय द्वारा प्रेरित हुई- उत्पन्न हुई पोड़ा या वेदना उपकार युक्त जीव हो चाहे उपकार रहित हो वेदनासे डरा हो चाहे नहीं डरा हो सब ही जीवों को उसको सहना ही पड़ता है बिना सहे उक्त वेदना नष्ट नहीं होती है । आशय यह है कि तीव्र असतकर्मको उदीरणा या उदय आजाने पर मानव कितना भी प्रतीकार करे अथवा बिल्कुल न करे, वेदनासे कितना भी भयभीत हो अथवा किंचित् भी डरता नहीं हो इन पारी ही अवस्थाओं में वेदनाको अवश्यमेव भोगना पड़ता है। उस वक्त वेदनासे बचनेका बचानेका कुछ भी उपाय नहीं है ।। १६६१ ।। बहुत बलवीर्यं युक्त औषधियोंका बड़े यत्न एवं विधिसे प्रयोग करने पर भी पापकर्मके उदय होनेपर वे औषधियां मनुष्यको बेदनाको शांत नहीं करती हैं ।। १६६२ ।। जो असंयमी है । किसी प्रकार यम नहीं है तथा राजा महाराजा मंत्री आदि परिवार वाला है अथवा स्वयं राजा महाराजा है तथा उनकी चिकित्सा करनेवाला धन्वंतरी वैद्य है तो भी पापकर्मोदयसे उत्पन्न हुई वेदनाका निराकरण करने में वह समर्थ नहीं होता है || १६६३॥ भावार्थ - राजा आदि लोग अतिशय धनवान् होते हैं, उनकी शुश्रूषा करनेके लिये अनेक मनुष्य सदा तत्पर रहते हैं, रोग दूर करने में उन लोगोंको असंयमकी कोई परवाह भी नहीं रहतो कि अमुक उपाय में असंयम होगा अतः वह उपाय न करे । वे तो सब प्रकारका रोग उपशमनका उपाय करते हैं | धन्वंतरी वैद्य समान चतुर चिकित्सक रोगका निदान कर औषधिका सेवन कराते हैं, परन्तु यह सब व्यर्थ हो जाता है जब असाताका तोव्र उदय चल रहा हो । इसप्रकार निर्यापक आचार्य क्षपक मुनिको समझा रहे हैं कि तुम यह नहीं सोचना कि मैं असंयमी होता, राजा प्रादि होता
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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