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सारणादि अधिकार
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संसारे भ्रमतस्तृष्णा दुरंता या तवाभवत् । न सा शमयितुं शक्या सर्वांभोधिजलरपि ।।१६८६॥ बुभुक्षा तारशी जाता संसारे सरतस्तत्र । न शक्या याहशो हंतु सर्वपुद्गलराशिना ॥१६८७॥ सोढ़वा तृष्णाबुभुक्षे ते त्वं नेमे सहसे कथम् । स्ववशे धर्मवद्धयर्थमल्पकाले महामते ! ॥१६८८॥ समुद्रो लंचितो येन मकरग्राहसंकुलः । गोष्पवं लंघतस्तस्य न खेदः कोऽपि विद्यते ॥१६८६।। श्रुतिपानकशिक्षालश्रुतध्यानौषधैर्यते । । वेबनानुगृहीतेन सोढ़ तीवापि शक्यते ।।१६६०॥
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भो साधो ! संसारमें चिरकाल तक भ्रमण करते हुए तुमको जो महातृषा बाधा हुई थी वह इतनो विशाल थी कि समस्त सागरोंके जलसे भी शांत नहीं हो सकती थी ।।१६८६।। उसीप्रकार संसारमें परिभ्रमण करते हुए तुमको जैसी क्षधा लगी थी वैसी क्षुधा संपूर्ण पुद्गल राशि द्वारा भी दूर करना अशक्य था । हे महामते ! जब इतनी भयंकर भूख और प्यास सहन कर चुके हो तो अब स्वाधीनतासे रत्नत्रयधर्मकी वृद्धिके लिये अल्पकाल तक किंचित् भूख प्यास किसप्रकार नहीं सहोगे ? सहना ही चाहिये ।।१६८७।।१६८८।।
देखिये ! जिसने मकर मत्स्य आदि जलचर जीवोंसे व्याप्त ऐसा समुद्र पार कर लिया है उसको गोष्पद प्रमाण जलका उल्लंघन करने में कुछ भी खेद नहीं होता है । ठीक इसोप्रकार दुर्गतियोंमें दु :खोंका मानों सागर हो था उसको तुम भोगकर आये हो तो अब भूख या वेदना संबंधी किंचित् दु:ख सहने में क्या खेद है ? कुछ भी नहीं ।।१६८६।। हे क्षपक मुने ! इस समय तुमको भूख, प्यास, रोग आदि संबंधी वेदना हो रहो है सो हम उपदेश रूपी पेय पदार्थ द्वारा आपकी प्यासको दूर करनेका अनुग्रह करते हैं तथा शिक्षारूपो भोजन एवं सूत्रार्थ के ध्यानरूपी औषधि द्वारा क्रमशः क्षधा और रोगका अनुग्रह कर रहे हैं इससे तीव्र भी वेदना सहन करने में तुम समर्थ हो जावोगे ।।१६६०॥