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मरणफण्डिका
छंद-दोधकपूर्वभवाजितदुष्कृतजातं । उत्पन्न त्रिदशत्वमशस्तम् । दुःखमसामपारमवाप्तम् । चितय भद्रविमुच्य विषावम् ।।१६८२॥
इति देवगतिः ॥ दुगंतो यत्त्वया प्राप्तमेव दुःखमनेकशः । न तस्यानंतभागोऽपि भद्र ! बुःखमिवंस्फुटम् ॥१६८३॥ संख्यातमप्यसंख्यातं कालमध्यास्य ताशम् । अल्पकाल मिदं दुःखं सहमानस्य का व्यथा ।।१६८४॥ अवशेन त्वया सोढास्तादृश्यो वेदना यदि । किं तदा धर्मबुद्धघयं स्ववशेन न सह्यते ॥१६८५॥
होता है तथा इस दिव्यगतिसे ज्युत होकर अब मुझे अतिशय निंद्य गर्भावास में नो मास तक रहना पड़ेगा इस बातका ध्यान करते हुए अत्यंत दुःख होता है ॥१६८।।
हे भद्र ! इसप्रकार देवपर्यायसे च्युत होते समय जीवको देवपना भी अत्यंत अप्रशस्त प्रतीत होता है। पूर्वभवमें उपार्जित पापके उदयसे असह्य दुःख उत्पन्न होता है। हे क्षपक ! तुमने इसतरह सर्वत्र ही अपार कष्ट एवं दुःख पाया है अब विषादको छोड़कर अतीत समस्त दुःखों का विचार करो और मनः समाधान पूर्वक सल्लेखनामें सावधान हो जाम्रो ॥१६८२।।
देवगतिके दुःख का वर्णन पूर्ण हुआ । हे भद्र ! इसप्रकार तुमने दुर्गति में अनेक बार दुःखको प्राप्त किया है, वह जो चतुर्गतिका दुःख है उस दुःख के अनंतवें भाग प्रमाण भो यह समाधिमरणके समयका भख आदिका दुःख नहीं है ।। १६८३।। अतीत में तुमने संख्यात तथा असख्यात वर्ष प्रमाण काल में वैसा भयंकर दुःख सहा था, अब बहुत थोड़े कालका किंचित् दुःख सहते हए क्या व्यथा मानना ? अर्थात् रत्नत्रयको आराधनामें किंचित् दुःख होवे तो उसमें शांत भाव रखना चाहिये व्याकुल होकर व्रतादिसे च्युत नहीं होना चाहिये ।।१६८४॥
चतुर्गतियों में परवशतासे वैसी महावेदना सहन को थो, तो अब धर्मबुद्धिसे अपनी स्वाधीनता पूर्वक यह अल्पदुःख क्यों न सहा जाय ? अवश्य सहना चाहिये ॥१६८५॥