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सारादि अधिकार
छेद-रथोद्धता
हितं दुरतिकर्म निर्मितं मानुषों गतिमुपेयुषा त्वया ।
दुःसहं चिरमवाप्तमूजितं कि न चितयसि तत्वतोऽसुखम् ॥१६७८ ।। इति मनुष्यगतिः । वेवत्वे मानसं दुःखं घोरं कायिकतोंsगिनः । पराधीनस्य बाह्यत्वं नीयमानस्य जायते ॥१६७६ ॥ गुर्वी दृष्ट्वामरो मानी महद्धिकसुरक्षियम् । तवा स श्रयते दुःखं मानभंगेन मानसम् ॥। १६८० ।। छद-रथोद्धता
सुदशस्त्रिदिवासि बरीच तो विबुधभोग संपदः ।
ध्यायतो भवति दुःखमुल्बणं गर्भवासवसति च निदितां ।। १६८१ ।।
मनुष्य गतिको प्राप्त कर तुमने गर्हित पापकर्म किया, उससे जो दुःसह पापसंचय होकर जो भयंकर दुःख उठाना पड़ा था भी क्षपक ! उस दुःखको तुम तत्त्वदृष्टि द्वारा क्यों नहीं विचार करते हो ? हे धोर ! तुम्हें अवश्य ही इन उपर्युक्त मनुष्य गति संबंधी दुःखका चिंतन करना चाहिये, जिससे वर्तमानके किंचित् कष्ट सहज ही सहन हो ।। १६७८ ।।
मनुष्यगति दुःखका वर्णन समाप्त । देवगतिके दुःखका वर्णन -
इस संसारी प्राणीको कायिक दुःख से अधिक मानसिक दुःख देवगतिमें सहना पड़ा है। वहां पर अभियोग्य वाहन जातिके देव पर्याय में पराधीन हो हंस मयूर आदि सवारी बनकर अन्य देवोंको ले जाना पड़ा उस वक्त बड़ा भारी मानसिक दुःख हुआ ।। १६७६ ।। मानो देव अन्य बड़े देवोंको महान् ऋद्धियों की शोभा लक्ष्मोको देखकर मानभंगसे मानस दुःखको प्राप्त होता है अर्थात् उसे विचार आता है कि यह भी देव है और मैं भी देव हूं किन्तु यह कितना ऋद्धि संपन है, मुझे इसके सामने नीचा देखना पड़ रहा है अहो ! मैंने पूर्व जन्ममें निर्दोष आचरण नहीं किया जिससे देव होकर भी मुझे अन्य को दासता करनी पड़ती है इसप्रकार विचार आने से देव पर्यायमें भी महान् दुःख होता है ।। १६८०।।
जब देव पर्यायका काल समाप्त होता है तब वहांके दिव्य वस्त्राभूषण, दिव्य देवांगनायें अप्सरायें छोड़ते हुए उस
मनोहर भोग संपदायें, देवको बड़ा भारी कष्ट