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________________ ४०६ ] मरणकण्डिका स्तेनाग्निजलदायादपायिवर्धन विप्लवे कशावंडादिभिर्धाते हस्तपादादिमईने ॥१६७३॥ मूधिन प्रज्वालने वह्न भक्तपानाविरोधने । शखलैः रज्जभिः काष्ठहस्तपादाविबंधने ॥१६७४॥ पराभवे तिरस्कारे वृक्षशाखावलंबने । व्याघ्रसर्पविषारातिरोगादिभ्यो विपर्यये ॥१६७५॥ जिह्वाकर्णोष्ठनासाक्षिपाणिपादादिकर्तने । शीतवातातपोदयाबुभुक्षादिकदर्थने ॥१६७६।। शारीरं मानसं दुःखं साधो ! प्राप्तमनेकशः। यदुःसहं त्वया नत्वे तत्वं चितय यत्नतः ।।१६७७॥ परिवारको पालन करने में आजीविका की विकट समस्यामें, धनके संरक्षणमें तमको अनेक प्रकारके भय, शोक, अपमान मात्सर्य, राग, द्वेष और मदसे कष्ट सहना पड़ा अग्निसे संतप्त हुए के समान जो दुःख भोगा उसका विचार करो ।।१६७२।। चोरी हो जानेसे, अग्निसे, जलसे, हिस्सेदार पारिवारिक व्यक्ति और राजा द्वारा धनके नष्ट हो जानेपर तुम्हें जो प्राण घातक पीड़ा हुई थो तथा दास कर्म में नियुक्त होनेपर, चाबुकके कोड़ेकी मार पड़ी हस्त पाद आदिका मर्दन हुआ उस कष्टका स्मरण करो ।।१६७३।। किसी क्रूर दृष्ट शत्रुके द्वारा तुम्हारे शिर पर अग्नि जलायी भोजन पानी रोके गये, सांकल, रस्सी काठ प्रादिसे तुम्हारे हाथ पांव आदि बांधे गये थे उन दुःखों को अपमानको स्मृतिमें लाओ ।।१६७४॥ हे क्षपक ! शत्रु द्वारा पराभव होनेपर, तिरस्कार होनेपर किसी चोर, डाक आदिके द्वारा वृक्षको शाखापर लटकाये जानेपर जो जो पीड़ा सहो उनका हृदयमें विचार करो । जंगलमें व्याघ्र, सर्पसे कष्ट हुआ । शत्रु और रोगादिसे कष्ट हुअा उसका स्मरण करो ॥१६७५।। जीभ निकालना, कर्ण और ओठोंका छेदना, नाक, आंख, हाथ, पैर आदिका काटना, ठंडो, गरमी, हवा, प्यास, भूख आदि-आदिका महान कष्ट भोगना पड़ा था उसको स्मृति पथमें लाओ ।।१६७६।। हे साधो ! तुमने शारीरिक और मानसिक दुःख अनेक बार प्राप्त किये हैं। मनुष्य पर्यायमें जो दुःसह बेदना आयी थी उसका तूम प्रयत्तसे तात्विक चिंतन करो ।।१६७७।।
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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