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________________ सारणादि अधिकार मानुषीं पतिमापद्य यानि दुःखान्यनेकशः । त्वमवाप्तश्चिरं कालं तानि स्मर महामते ! | ११६६८ ।। प्रियस्य विगमे दुःखमप्रियस्य समागमे । अलाभे याच्यमानस्य संपन्नं मानसं स्मर ।। १६६६ ॥ छंद-स्रग्विणी - कर्कशे निष्ठुरे निःश्रवे भाषणे तर्जने भत्सने लाडणे पोडने । अंकने दंभने गुलसेवने ॥१९७॥ दुःसहं फिकरीभूतः करणे निद्यकर्मणः । यदवापश्चिरं दुःखं तन्निवेशय मानसे ।।१६७१॥ भीशोकमानमात्सर्य रागद्व ेष सवादिभिः । तप्यमानो गतो दुःखं पावकेरिव चितय ॥१६७२।। [ ४८५ मनुष्य गतिके दुःख हे महामते ! क्षपक ! तुमने मनुष्यगति में आकर जिन दुःखोंको अनेकों बार बहुत समय तक भोगा था उन दुःखोंको याद करो ।। १६६८ ।। प्रिय वस्तु- पत्नी पुत्र आदिके वियोग होनेपर, अप्रिय वस्तु शत्रु कंटक आदि के संयोग होनेपर तथा प्रार्थित वस्तुके नहीं मिलनेपर तुझे अंतरंग में दुःख हुआ था हे क्षपक ! उसका तुम स्मरण करो ।। १६६९ ॥ भावार्थ - जिसका नाम सुनने पर भी सर्वागमें रोमांच आते हैं मनमें आह्लाद होता है, जिसको देखते ही नेत्र मानों अमृत से सींचे गये हों ऐसा लगता है उस व्यक्तिको प्रिय कहते हैं । जिसका नाम श्रवणसे भी मस्तक शूल उठता है जिसको देखकर नेत्र धूमके समान हो जाते हैं उस व्यक्ति को अप्रिय कहते हैं । हे क्षपक ! जब तुम पराधीन होकर नोच पुरुषकी सेवा धनके लिये की धो उस वक्त उस नीचके कठोर निष्ठुर, नहीं सुनने योग्य ऐसे वचन तुमने सुने थे, उसके द्वारा की गयो तर्जना, भर्त्सना, ताड़ना, पीड़ाको सहा था, रोकड़ जमाना, छल करना, मुंडन, बाधा, खराब बर्ताव होना, नीच पूरुषकी सेवामें रहते हुए तुम्हें ये सब कष्ट सहने पड़े थे, उसने कुपित होकर तुम्हारा मर्दन और छेदन भी कर डाला था । इसतरह free होकर निद्य कामको किया उस वक्त जो चिरकाल तक दुःख भोगा था उस दुःखको हृदयमें रखो - विचार करो ।।१६७० ।। १६७११४
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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