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मरणकण्डिका
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छंद-द्रतविलंबितसलिल मारुतशीतमहातपभ्रमण भक्षणपान निरोधनः। दमनतोदनगालनभंजन जलवियोजन भोजनवर्जने ।।१६६४॥ प्रबाग पतितः क्षोण्यां निःप्रतीकारविग्रहः । दुःसहा वेदनां सोया बहुभिर्वासरंमृतः ॥१६६५॥ अत्तष्णा व्याधिसंहारविह्वलोभूतमानसः । यः बहुमाः समन्तत हुनये कुरु ।।१६६६॥
छंद-उपजातितिर्यग्गति तोवविचित्रवेदनां गतो जराजन्मविपर्ययाकुलम् । दुःखासिका यां गतवाननारतं विचिंतयेस्तामपहाय बोनताम् ॥१६६७।।
इति तिर्यग्गतिः । इच्छित स्थानपर नहीं जाने देना, तोदन-व्यथा पहुंचाना, पानी में गीले होना, पीलना, पानी नहीं पीने देना तथा घास आदि नहीं खाने देना इत्यादिसे बड़ा भारी कष्ट सहन करना पड़ा था ।।१६६४!। जब बैल, गधा, आदि दोन पशु स्वामो विहीन हो जाते हैं अर्थात इनका मालिक नहीं होता है तो वे बेरक्षक हो रोगादिकी स्थितिमें कहीं जमीन पर गिर जाते हैं । उस वक्त उनके शरीरका इलाज करने वाला कोई नहीं था । क्षीणकाय वहीं पर पड़े पड़े दुःसह वेदनाको सहन करके बहुत दिनोंके बाद वे विचारे अनाथ पशु मर जाते हैं मर जाते थे ।।१६६५।।
हे क्षपक ! उक्त अवस्था में जो दुःख तुमने पाये थे उनको स्मरण करो। भूख, प्यास, रोग, पीटना आदिसे अत्यन्त विह्वल-घबराया है मन जिनका ऐसे उन पशु जोवोंने जो दुःख बहुत बार प्राप्त किया था उन सब दुःखोंको हृदयमें याद करो। ११६६६।।
तिर्यंचगतिको प्राप्त हुए तुमने तीव्र विचित्र वेदना भोगी है, जन्म, जरा, मरण से आकूलित हो सततरूपसे जिस दुःखमय अवस्थाको तुमने पाया था उसको दोनपने के भावका त्याग करके विचार करो । हे क्षपक ! तुमने अनंत काल तक तिर्यंच पर्यायके कष्ट भोगे हैं उसका चितवन करो जिससे वर्तमानके थोड़ेसे कष्टको सहन करने का साहस आवे ।। १६६७।।।
तिर्यंच गतिके दुःखोका वर्णन समाप्त ।