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सारणादि अधिकार
जन्ममृत्युजराकीण घोरां तिर्यग्गति गतः ।
कि ती बहुशो लब्धां स्मरसि त्वं न वेदनाम् ।।१६६०।। पंचधा स्थावरा जीवा विमूढोभूतचेतनाः । लभते यानि दुःखानि कः शक्तस्तानि भाषितुम् ।। १६६१ ।।
सवा परवशीभूताश्चतुर्धा जसकायिकाः । दुःखं बहुविधं दीना लभन्ते चिरमुल्बणम् ।।१६६२॥
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ताडने वाहने बघने त्रासने नासिकातोदने कर्णयोः कर्तने । लांछने वाहने दोहने हंडने पीडने मर्द्दने हिंसने शातने ।। १६६३॥
तिर्यंच गतिके दुख:का वर्णन -
जन्म, मरण और जरासे आकीर्ण घोर तिर्यच गतिको हे क्षपक ! तुमने पाया था, वहां पर बहुत बार तीव्र वेदनाको भोगा उसका स्मरण क्यों न करो ! अर्थात् इस समय तुम्हें अपने अतीत तिर्यंच पर्यायका स्मरण करना चाहिये ।। १६६० ।। सुप्त है चेतना जिनकी ऐसे पंच स्थावर जीव- पृथिवोकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पति कायिक जिन जिन दुःखोंको पाते हैं उनका वर्णन करने में कौन समर्थ है ? कोई भी नहीं ।।१६६१ ।।
द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय ये चार प्रकारके सकायिक जीव सदा ही पराधीन रहते हैं । दीन होकर चिरकाल तक बहुत प्रकारके उत्कट घोर दुःखों को भोगते हैं ।। १६६२ ।।
लाठी आदिसे पीटना, बोझा लादना, रस्सी आदिसे बांधना, भय दिखाना, नाक में नकील डालना, कानोंको कतरना, शरीरकी चमड़ी पर चिह्न बनाना, दूहना, तकलीफ देना, पीड़ा देना, मसलना, मारना, छोलना इत्यादि क्रिया द्वारा बैल, गधा, ऊंट आदि तिर्यंचोंको दुःख दिया जाता है । है क्षपक ! जब तुम तिर्यंच पर्याय में थे तब इन दुःखोंको भोगा है ।। १६६३ ।।
वर्षांमें जलसे, हवासे, ठंही के दिनों में शीत से, गरमी में महान् यातपसे, घुमाना, आहार पानीको रोकना इत्यादि क्रियासे तुमने कष्ट पाये थे। दमन करना अर्थात्