SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 522
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४८२ ] मरणकण्डिका शक्तिभिः सूचिभिः खड्गर्यश्च्छिन्नाखिलविग्रहः । विगलद्रक्तधाराभिः कर्दमोकृत मूतलः ॥१६५६।। यत्स्फुटल्लोचनो दग्धो ज्वलिते वनपाधके । यच्छिन्नहस्तपादादिश्छिद्यमानास्थिसंचयः ॥१६५७।। शोषणे पेषणे कर्षणे घर्षणे लोटने मोटने कुट्टने पाटने । त्रासने ताडणे मईने चूर्णने छेदने भेदने तोदने यच्छितः ।।१६५८॥ छंद-स्रग्विणी-- दु:कृतकर्मविपाकवशोषं कालमपारमनंतमसह्यम् । सोढमिवं हृदये कुरु सर्व कातरतां विजहोहि सुबुद्ध ! ।।१६५६।। इति नरकगतिः। सींचकर ऊपरसे उन दुष्ट नारकियों ने हवा की थी ।।१६५५।। शक्ति नामके शस्त्रोंसे, सुईयोंसे एवं तलवारोंसे छिन्न किया गया है समस्त शरीर जिसका ऐसे तुम अत्यन्त दुःखी हुए निकलती हुई रक्तोंको धाराओंसे कीचड़ युक्त किया है भूतल जिसने ऐसे तुमने महान् दुःख भोगे उसका स्मरण करो ॥१६५६।। जिसके नेत्र फोड़ दिये हैं, वच्च की अग्निसे जिसे जलाया है । काट डाले हैं हाथ पैर जिसके तथा टूट रही है हड्डियां जिसकी ऐसे तुमने नरकमें महादुःख भोगे हैं (नारकीके शरीर वक्रियिक होते हैं अतः हड्डियां नहीं होती यहां हड्डियां टूटी इस शब्दका अर्थ शरीर के अवयव टूटे ऐसा लगाना) ॥१६५७11 नरक गतिमें शोषण, पीसना, कर्षण-कसना, घर्षण-घोसना, लौटाना, मोड़ना, कूटना, उपाड़ना, डराना, ताड़ना, मसलना, चूर्ण करना, छेदना, भेदना और पीड़ा इन क्रियाओंके होनेसे तुमने अत्यन्त दुखोंको पाया था ।।१६५८।। अपार अनंत काल तक अपार अनंत अनंत असह्य दुःखोंको सहन किया था जो कि पाप कर्मके उदयसे उत्पन्न हुआ था । हे सुबुद्ध ! हे क्षपकराज ! अब तुम उन सब दुःखोंका हृदय में विचार करो, वर्तमान की किंचित् वेदनासे आयी हुई इस कातरता को छोड़ दो छोड़ दो ।।१६५६।। __इसप्रकार क्षुधा आदिकी वेदनासे घबराये हुए क्षपक को निर्यापक आचार्यने नरकगतिके दुखोंका वर्णन कर धैर्य दिलाया है । नरकगतिके दुःखोंका वर्णन समाप्त ।
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy