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अवो चार भक्त त्याग इंगिनी प्रायोपगम नाधिकार इंगिनीमरणं प्रोक्त समासव्यासयोगतः । प्रायोपगमनं वक्ष्ये व्यासेन विधिनाधुना ॥२१३४॥ इंगिनोमरणेऽवाचि प्रक्रमो यो विशेषतः । प्रायोपगमनेऽप्येष व्रष्टव्यः श्रुतपारगः ॥२१३५॥ संस्तरः क्रियते नात्र तृणकाष्ठाविनिर्मितः । स्वकीयमन्यदोयं च वैयावत्यं न विद्यते ॥२१३६।। करोत्येनं ततो योगी कृतसल्लेखनाविधिः । उच्चारप्रस्त्रवादीनां ततो नास्ति निराक्रिया । २१३७।। पृश्योवाय्वग्निकायादौ निक्षिप्तस्त्यक्तविग्रहः । प्रायुः पालयमानोऽसावदासोनोऽवतिष्ठते ।।२१३८।।
संक्षेपसे इंगिनो मरणको कहा, अब प्रायोपगमन मरणको संक्षेप विधिसे कहंगा ।।२१३४।। इंगिनीमरणमें जो प्रक्रम विधि कही थी विशेषसे प्रायोपगमन मरण में भी वही प्रक्रम श्रुतके पारगामी गणधर आदिके द्वारा देखो गयो है-कही गयी है ।।२१३५।। इस मरण में तृण काष्ठ आदिका संस्तर नहीं किया जाता तथा अपने द्वारा और परके द्वारा वैयावृत्य भी नहीं किया जाता ।।२१३६।। कषाय और कायकी कृशता को जिसने कर लिया है ऐसा योगी इस मरणको करता है, उस कारणसे इसमें मलमत्र आदिका निराकरण नहीं होता है अर्थात् प्रायोपगमन सन्यासका धारक मलमत्र भी नहीं करता ।।२१३७।। यदि किसी वैरी देव, मनुष्य या पशु आदिके द्वारा उनको पृथिवी, वाय, अग्नि, वनस्पति आदि सचित्त स्थानपर डाल देवे तो वे वहीं पर स्थित रहते हैं, शरोरका ममत्व सर्वथा छोड़े रहते हैं. आयुकी परिसमाप्ति होनेतक उदासोन होकर वहीं निश्चल अवस्थित होते हैं, अर्थात जैसे इंगिनी मरणमें उपसर्ग द्वारा सचित्त स्थानपर डाल देनेपर वे मुनि उपसर्ग समाप्त होनेपर उस स्थानसे निकल अपने स्थानपर आते हैं वैसे ये प्रायोपगमन मरण करने वाले महामुनि नहीं आते जहां पर फेंका-गिराया पटका है वहों पर प्राण जाने तक काष्ठवत् अवस्थित रहते हैं ॥२१३८।। यदि कोई पाकर प्रायोपगमन सन्यास में स्थित यतिराजको गंध, पुष्प, धूप आदिसे पूजा करता है तो छोड़ दिया है शरीरका ममत्व जिन्होंने ऐसे वे उस पूजाक्रियामें उदास रूपसे बैठे