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मरणकण्डिका गंधप्रसूनधूपाचः क्रियमाणेऽप्युपग्रहे । त्यसबेहतयोदास्ते स स्वजीवितपालकः ।।२१३६॥ यत्र निक्षिपते देहं निःस्पृहः शांतमानसः । ततश्चलयते नासौ यावज्जीवं मनागपि ॥२१४०॥ इत्युक्तं निःप्रतीकारं प्रायोपगमनं जिनः । नियमेनाचलं ज्ञेयमुपसर्गे पुनश्चलम् ॥२१४१॥ उपसर्गहतः कालमन्यत्र कुरुते यतः । ततो मतं चलं प्राजैरुपसर्गमते स्थिरम् ॥२१४२।।
रहते हैं अर्थात् उस पूजकपर न प्रसन्न होते हैं, न उसे रोकते हैं, न कोप करते हैं । आशय यह है कि कोई वैरी आकर उन्हें उपसर्ग करे विषम स्थानपर डाल देवे इत्यादि क्रियासे महान् कष्ट दे तो उस गाशि र कुपिता नहीं होते और कोई जाकर गंध पुष्पादिसे पूजा करे या उनका किसीप्रकार अनुग्रह करे तो उसपर प्रसन्न नहीं होते दोनों अवस्थाओं में समान रूप उदासीन रहते हैं ।।२१३६।।
जिस स्थानपर नि:स्पृह और शांत मनवाले उन मनिराजने शरीर डाल दिया है वहांसे अब वे यावज्जीव पर्यंत किंचित् भी हिलते डुलते नहीं हैं ।।२१४०।।
इसप्रकार प्रायोपगमन मरण सर्वथा प्रतीकार रहित होता है नियमसे शरीरकी चंचलता क्रिया हिलना आदिसे रहित होता है ऐसा जिनेन्द्र देवने कहा है । यदि उपसर्ग द्वारा उन्हें उठाकर कहीं फेंक देवे तो बह चलपना तो है किन्तु स्वयं कृत शरीर चंचलता नहीं है सर्वथा अकंप, अचल, अडोल रूप ही स्थित रहते हैं ।।२१४१॥ जिस कारणसे उपसर्ग द्वारा आहत होकर अन्य स्थानपर स्थित होकर वे मरण करते हैं उस कारणसे प्राज्ञ पुरुष द्वारा उपसर्ग पूर्वक होनेवाले मरण में शरीरको चलता मानो गयी है अन्यथा शरीरकी स्थिरतासे-एक ही स्थान पर रहकर उनका समाधिमरण होता है । भाव यह है कि उपसर्ग के कारण उनका स्थानांतर होता है अन्यथा कभी भी स्थानांतर नहीं करते एक बार जहां पद्मासन या खड्गासानसे स्थित हो गये वैसे ही आमरण पर्यंत स्थित रहते हैं ।।२१४२॥