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मरणकण्डिका
पाराधने चरित्रस्य, सर्वस्याराधनाऽथवा । शेषस्याराधना भाज्या, चारित्राराधना पुनः ॥११॥ कृत्याकृत्ये यतो ज्ञात्या, करोल्यावान मोक्षणे । अन्तर्भावः चरित्रस्य, ज्ञानवर्शनयोस्ततः ॥१२॥ व्यापारस्तत्र चारित्रे, मनोवायकाय गोचरः । यो दूरीकृतसाध्यस्य, तत्तयोगदितं जिनः ॥१३॥ चारित्रं पञ्चमं सारो, ज्ञानदर्शनयोः परः । सारस्तस्याऽपि निर्वारगमनुत्तरमनश्वरं ॥१४॥
करके अपने ऊपर बहुत सी धूल डाल लेता है । स्नान द्वारा शरीर का मल जितना निकला था उससे अधिक मल शरीर में लग जाता है वैसे सम्यग्दृष्टि बिना संयम के तप द्वारा जितना कर्मक्षपण करता है उससे अधिक नवीन कर्म असंयम के कारण संचित कर लेता है। अथवा जैसे छाछ बिलोते समय मथानी की रस्सी एक तरफ से स्खलतो जाती है और एक तरफ से बंधती जाती है, वैसे अविरत सम्यग्दृष्टि के तप से पुराने कर्म निर्जीर्ण होते जाते हैं और नवीन कर्म बंधते जाते हैं ॥१०॥
अथवा चारित्र की आराधना होने पर नियम से सभी आराधना संपन्न होती है किन्तु शेष सम्यक्त्व आदि की आराधना करने पर चारित्र की आराधना होती भी है और नहीं भी होती, क्योंकि यह मेरे को करने योग्य है, यह करने योग्य नहीं है इत्यादि हेय और उपादेय पदार्थों को जानकर ही यह जीव कृत्य-उपादेय का ग्रहण और अकृत्यहेय का त्याग करता है इसलिये चारित्र में ज्ञान तथा दर्शन का अन्तर्भाव होता है अर्थात् जहाँ चारित्र है वहाँ ज्ञान और दर्शन होता ही है ।।११।१२।।
___ चारित्र में मन वचन और काय संबंधी जो सर्व व्यापार प्रयत्न होना है वही तप है ऐसा जिनेन्द्र देव ने कहा है अर्थात् माया छल आदि को दूर कर चारित्र में प्रयत्नशील होना, चारित्र में उपयोग लगाना तप है, अतः चारित्र आराधना में तप आराधना अंतर्भूत होती है ऐसा कहा है ॥१३॥
ज्ञान और दर्शन का सार पंचम यथाख्यात चारित्र की प्राप्ति होना है उस पंचम चारित्र का सार श्रेष्ठ अविनश्वर निर्वाण प्राप्त होना है ।।१४।।