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________________ पीठिका चक्षुष्टेर्मतः सारः सर्पादीनां विवर्जनं । भवति सा दृष्ट्वा विवरेपततः सतः ॥ १५ ॥ निर्वाणस्य सुखं सारो, निर्व्याबाधं यतोऽनघं । चेष्टा कृत्या ततस्तस्यां तदर्थं स्वहितैषिणा ।। १६ ।। रत्नत्रये यतो यत्नः सा साध्याराधनागमे । श्रागमस्य ततः सारः सर्वस्यैषा निरूपिता ।। १७॥ [ % भावार्थ — केवलज्ञान और केवलदर्शन तेरहवें गुणस्थान में प्राप्त होता है तथा सर्वोत्कृष्ट यथाख्यात चारित्र चौदहवें गुणस्थान के अंत में होता है और उसके होते ही निर्वाण मोक्ष- सिद्धावस्था प्राप्त होती है, इसलिये ज्ञान और दर्शन का सार यथाख्यात चारित्र है तथा उस चारित्ररूप सार का भी सार निर्वाण है, ऐसा कहा है । नेत्र द्वारा देखने का सार सर्प आदि कष्टदायक पदार्थों का दूर से परिहार कर चलना है, यदि नेत्र दृष्टि है और देखकर भी गर्त में पड़ता है तो उस गर्त में गिरने वाले पुरुष के नेत्र दृष्टि का होना व्यर्थ है। आशय यह है कि श्रद्धान और ज्ञान होने पर भी यदि चारित्र नहीं है तो श्रद्धा व ज्ञान व्यर्थ है, क्योंकि अकेले श्रद्धा तथा ज्ञान से मुक्ति नहीं होती । अतः सम्यक्त्व तथा ज्ञान आराधना के साथ चारित्र तथा तप को आराधना अवश्य आराधनीय है । जैसे नेत्र के होते हुए भो सावधानो रूप आचरण नहीं होवे तो वह पुरुष गर्त आदि में गिर जाता है । वैसे श्रद्धा ज्ञान रूप नेत्र होते हुए भो चारित्र रूप सावधानी नहीं होने से यह जोव संसार रूप गर्त में गिरता है ॥१५॥ जिस कारण से निर्दोष बाधा रहित निर्वाण का सुख ही संसार में सारभूत पदार्थ है । उस कारण से अपने आत्मा के हित की इच्छा करने वाले मुमुक्षुओं को उस निर्वाण सुख की प्राप्ति के लिये सदा प्रयत्न करना चाहिये ||१६|| जिनागम में रत्नत्रय में प्रयत्नशील होना रूप चारित्र का सार आराधना कही है और सर्व आगम का सार आराधना है । अर्थात् आगम का सार और चारित्र का सार एक मात्र आराधना है || १७|| आगे कहते हैं कि चार आरावनाओं का मरणकाल में आराधना करना दुर्लभ है
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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