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मरणकण्डिका चतुरङ्ग प्रपाल्यापि, चिरकालमदूषणं । विराध्य म्रियमाणाना मनन्ताकथि संसृतिः ॥१८॥ समिति गुप्तिसंज्ञान, दर्शनादित्रयेशिनाम् । प्रतितापवादानां जायते महदन्तरम् ॥१६॥ चारित्राधनेसिद्धा, श्चिर मिथ्यात्वभाषिताः । क्षणाद् दृष्टा यतः सुवे, चारित्रातधनाः ततः ॥२०॥ मृतावाराधनासारो, यदि प्रयचमतः ।
किमिवानों सदा यत्नश्चतुरंगे विधीयते ॥२१॥ चिरकाल तक सम्यक्त्व, ज्ञान, चारित्र और तप इन चारों आराधनाओं का अतिचार रहित पालन करके भी यदि कोई मुनिराज मरणकाल में उन आराधनाओं को विराधना करके मरते हैं तो उनके अनंतकाल तक संसार परिभ्रमण होता है ऐसा आगम में कहा है ।।१८।।
ईर्यासमिति, भाषा समिति आदि पाँच समिति, मनोगुप्ति आदि ज्ञान दर्शन आदि रत्नत्रय इन सबमें अतिचार रहित प्रवृत्ति करना और अतिचार युक्त प्रवृत्ति करना इन दोनों प्रवृत्ति में महान अन्तर है अर्थात् समिति व्रतादि को निर्दोष पालना और संक्लिष्ट परिणामों से युक्त होकर अतिचार युक्त पालना इसमें भेद है । अतिचार रहित व्रताचरण से महान संवर और निर्जरा होती है ।।१६।।
विशेषार्थ-गमन, भाषण आदि में आगमोक्त विधि से प्रवृत्ति करना समिति है। मन, वचन काय की प्रवृत्ति रोकना गुप्ति है। संशय आदि दोषों से रहित शान संज्ञान कहलाता है । तत्त्वार्थ श्रद्धान को सम्यक्त्व कहते हैं। इनमें संक्लेश रहित प्रवृत्ति करनेवाले ही मुक्तिरमा के वल्लभ होते हैं अन्य नहीं।
जो चिरकाल से मिथ्यात्व संयुक्त थे वे भी अल्पकाल में सम्यक्त्व युक्त चारित्र आराधना के प्रभाव से सिद्ध अवस्था को प्राप्त करते हैं। इसी कारण से सूत्र में चारित्र आराधना का वर्णन किया है ॥२०॥
_ विशेषार्थ—अनादिकाल से यह जीव मिथ्यात्व में ही रहता है, क्वचित कालादि लब्धि से सम्यक्त्व प्राप्त कर यदि निरतिचार चारित्र का पालन करते हैं तो वे जीव शीघ्र उसी भव में मुक्त हो सकते हैं अतः चारित्र की शुद्धि परमावश्यक है।