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पीठिका
सम्यक्त्वाराधने साधोः ज्ञानस्याराधना मता । ज्ञानस्याराधने साध्या, सम्यक्त्वाराधना पुरा ।।७।। ज्ञानं मिथ्यारशोऽज्ञान • मुक्तं शुद्धनयर्यतः । विपरीतं ततस्तस्य, ज्ञानस्याराधना कुतः ॥८॥ मारिनाराधने व्यक्तं, भवत्याराधनं तपः । तपस्याराधने भाज्या, चारित्राराधना पुनः ।।६।। महागुणमवृत्तस्य, सदृष्टेरपि नो तपः ।
गजस्नानमिवास्येदं, मन्थरज्जुरिवाथवा ।।१०॥ बिना धारण करना, चारित्र एवं तप को भी किसी कामना के बिना धारण करना क्रमश: ज्ञान को ब्युढि, चारित्र की ब्यढि और तप की व्यूटि रूप आराधना जाननी चाहिये। परीषह आदि के उपस्थित होने पर भी श्रद्धा से, शान्ति से, दारिम से और रूप से विचलित नहीं होना तथा इन श्रद्धा आदि चारों को मरणपर्यंत ले जाना, पालन करना या निभाना क्रमशः सम्यक्स्च की नियू दि, ज्ञान की निव्यू दि चारित्र की नियहि और तप की निव्यू ढि रूप आराधना होती है ।
जिनागम में संक्षेप से आराधना दो प्रकार की कहो है । प्रथम सम्यक्त्व आराधना और दूसरी चारित्र आराधना ।।६।।
सम्यक्त्व की आराधना कर लेने पर नियम से ज्ञान की आराधना हो जातो है किन्तु ज्ञान को आराधना होने पर सम्यक्त्व आराधना भजनीय है-होती भी है और नहीं भी होती । अतः सर्व प्रथम सम्यक्त्व आराधना कही है ॥७॥
जिस कारण से मिथ्याइष्टि का ज्ञान शुद्ध नय की दृष्टि से अज्ञान ही कहलाता है । उस कारण से मिथ्यादृष्टि जीव के ज्ञान की आराधना कहाँ से होगी ? नहीं होगी ।।८।
चारित्र की आराधना कर लेने पर नियम से तप को आराधना होतो है, किन्तु तप की आराधना करने पर चारित्र की आराधना भजनीय है, होती भी है और नहीं भी होती ।।९।।
सम्यग्दृष्टि है किन्तु अन्नती है तो उसका तप महा गुणकारी नहीं होता, उनका तप तो गज स्नानवत् है अथवा मथानी की रस्सी के समान है अर्थात् जैसे गज स्नान