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________________ पंडितपंडित मरणाधिकार बादर तीर्थकृत्वैतास्तीर्थकारी त्रयोदश। न परो वेवयते साघस्तदानों द्वादश स्फुटम् ॥२१६२।। देहत्रितय बंधस्य ध्वंसायायोग केवली । समुच्छिन्नक्रियं ध्यानं निश्चलं प्रतिपद्यते ॥२१९३॥ मापनककालेन डे मात्र ते । प्रकृतीनामपक्वानां द्वासप्ततिमसौं समम् ।।२१६४॥ शरीरं पंचधा तत्र पञ्चधा देहबन्धनम् । संघातः पञ्चधा घोढा संस्थान ममरयम् ।।२१६५।। अंगोपांग त्रिसंख्यानं षोढा संहननक्षणे । पंच वर्ण रसाः पंच गंधस्पर्शा द्विधाष्टधा ॥२१६६॥ उच्चगोत्र, यशस्कीति और बादर इसप्रकार (सामान्य केवली) ग्यारह कर्म प्रकृतियां उदयमें रहती हैं तथा तीर्थंकर केवलोके ये ग्यारह तथा एक तीर्थकर इसतरह बारह प्रकृतियां उदयमें रहती हैं, इन बारहके अतिरिक्त अन्य तेरह आदि प्रकृतियोंका उदय उनके कदापि नहीं रहता, उससमय अधिकसे अधिक बारह प्रकृतियां ही नियमसे उदय में हैं ।।२१९१।।२१९२।। अयोग केवली तीन शरीर के संबंधका ( औदारिक तेजस और कार्मण शरोरका) सर्वथा नाश करने के लिये समुच्छिन्न क्रिया-व्युतरत क्रिया नियत्ति नामके चौथे निश्चल शुक्ल ध्यानको प्राप्त करते हैं ।।२१९३॥ पांच लघु ह्रस्व अक्षर (अ, इ, उ, ऋ, लु) के उच्चारण में जितना काल लगता है उतने काल प्रमाणवाला यह चौथा शुक्लध्यान है (इस चौदहवें गुणस्थानका काल भी इतना हो है) इस शुक्लध्यान में रहते हुए वे भगवान अरिहंत देव अपक्य रूप अर्थात् अनुश्यरूप बाहत्तर कर्मप्रकृतियोंका चौदहवें गुणस्थानके द्विचरम समय में युगपत् नाश करते हैं ।।२१६४६ उन बाहत्तर प्रकृतियों के नाम है-औदारिक आदि पांच शरीर, उन पांचों शरीरोंके पांच बंधन तथा पांच संघास-औदारिक शरीर बंधन, औदारिक शरीर संघात इत्यादि, समचतुरस्र आदि छह संस्थान, देवगति, देवगत्यानुपूर्वी, औदारिक शरोर अंगोपांग, वैक्रियक शरीर अंगोपांग, आहारक शरीर अंगोपांग ये तीन, वज्रवृपभ नाराच आदि छह संहनन, शुक्ल कृष्ण आदि पांच वर्ण, मधुर आदि पांच रस, सुगंध दुर्गधरूप दो गंध, स्निग्ध रूक्ष
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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