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मरण कण्डिका क्षोयते गुरुलघ्वादि चतुष्क । नभोगती । शुभवयं स्थिर प्रत्येक सुस्परद्वयम् ॥२२ ॥ अनादेयायशो निर्माणे चापूर्णानि दुर्भगम् । वेद्यमन्यतरत्तस्य द्वासप्ततिरूपान्तिमे ॥२१६८॥ अंतिम समये इत्वा प्रकृतीः स त्रयोदश । वंद्यमान सवाश्योगः प्रयाति पवमव्ययम् ॥२१६६॥
आदि आठ स्पर्श, अगुरु लघु चतुष्क अर्थात्-अगुरुलधू, उपघात, परघात और उच्छवास ये चार, प्रशस्त और अप्रशस्त बिहायोगति ये दो, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, प्रत्येक, सुस्वर, दुस्वर, अनादेय, अयशस्कीति, निर्माण, अपर्याप्त, दुर्भग, साता असातामें से एक वेदनीय और नीचगोत्र । फिर अंतिम समयमें तेरह प्रकृतियोंका नाश करके सबके द्वारा वंदनीय ऐसे वे अयोगी जिन अव्यय पद-मोक्ष प्राप्त करते हैं ॥२१९५।।२१९६।। ॥२१९७॥२१९८॥२१९९॥
विशेषार्थ-सयोग केवलोके पिच्चासो प्रकृतियोंको सत्ता रहती है प्रयोग केवलोके भो द्विचरम समय तक उन्हींकी सत्ता पायी जाती है । द्विचरम समयमें अयोगो जिन बाहत्तर कर्म प्रकृतियोंका नाश करते हैं जिनके नाम ऊपर गिनायें हैं। चरम समय में तेरह प्रकृतियोंका नाश करते हैं उनके नाम- मनुष्यगति, मनुष्य सत्यानुपूर्वी, मनुष्यायु, पंचेन्द्रिय, सुभग, त्रस, आदेय, पर्याप्त, यशस्कोति, उच्चगोत्र, साता असातामें से एक और तीर्थकर । जो सामान्य केवली हैं उनके तीर्थकर कर्मका सत्त्व नहीं होता अतः वे अंत समयमें बारह कर्मप्रकृतियोंका नाश करते हैं । अयोग केवलोके द्विचरमसमयमें नाश होनेवाली प्रकृतियां एवं अंत समय में होनेवाली प्रकृतियों में दो मत हैं—एक मतके अभिप्रायसे द्विचरम समयमें तिहतर प्रकृतियां नष्ट होती हैं और अंत समयमें बारह प्रकृतियां नष्ट होती हैं । अंतसमयको जो प्रकृतियां हैं उन मेंसे एक मनुष्यगत्यानपूर्वी का नाश पहले ही अर्थात् द्विचरम समयमें होता है । इसप्रकार कुल पिच्चासी कर्म प्रकृतियों का नाश करके वे अयोगी जिन शाश्वतधाम मोक्षको प्राप्त करते हैं और वहां पर हमेशा के लिये आत्मिक अनंत आनंदका अनुभव करते रहते हैं।