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________________ पंडित पंडित मरणाधिकार [ ६४१ नामकर्मक्षयात्तस्य तेजोबंधः प्रलीयते । प्रौदारिक वपुबंधो न सन्यायः क्षये सति ।।२२००॥ एरंडवीजबज्जीयो बन्धव्यपगमे सति । ऊवं यातिनिसर्गेण शिखेवविषमाच्चिषः ॥२२०१॥ आविनाशुगामि व सपूर्वेण नियोजितः। अलाबुरिव निर्लेपो गत्वा मोक्षेऽवतिष्ठते ।।२२०२।। ध्यानप्रयुक्तो यात्यूयमात्मायेगेनपूरितः । तथा प्रयत्नमुक्तोऽपि स्थातुकामो न तिष्ठति ।।२२०३॥ यथानलशिखा नित्यमूध्वं याति स्वभावतः ।। तथोवं याति जीवोऽपि कर्ममुक्तो निसर्गतः ।।२२०४।। इसप्रकार उन भगवान के नाम कर्मका सर्वथा क्षय होनेसे तंजस शरीरका जो संबंध आत्माके साथ हो रहा था वह नष्ट होता है तथा प्रायुकर्मका क्षय होने से औदारिक शरीरका जो संबंध था वह समाप्त होता है, इसतरह शरीरादिके बंधनोंसे सर्वथा प्रमुक्त हुआ यह जीव अर्ध्व गमन कर सिद्धालयमें जाकर विराजमान हो जाता है। जैसे एरंड का बोज उसका बंधन जो ऊपरी छिलका था उसके दूर होनेपर ऊपर जाता है अथवा अग्नि को शिखा-सौ स्वभावसे ऊपर की ओर जलती रहती है ( यदि हवा का झकोरा न होवे तो ) वैसे मुक्त हुआ आत्मा ऊपर की तरफ गमन करता है और अष्टम पृथिवी सिद्ध शिलाके ऊपर जाकर स्थित होता है ।।२२००।२२०१।। अथवा जैसे पूर्व के आवेगसे नियोजित किया गया आशुगामी-चक्र गमन करता है अर्थात् एकबार दंडेसे घुमा देने पर कुम्हारका चक्र कुछ समय तक घूमता रहता है, वैसे पूर्व प्रयोगसे अर्थात् ध्यान में किये गये ऊर्ध्व गमनके अभ्यासके वशसे मुक्त हुए जोव कार गमन करते हैं । अथवा जैसे मिट्टो आदिके लेपसे रहित तुम्बड़ो पानीके ऊपर आतो है वैसे कर्मरूप लेपसे रहित हुआ आत्मा मोक्षमें ऊपर गमन करता है-सिद्धालय में जाकर विराजमान होता है ॥२२०२॥ इसोको कहते हैं कि प्रात्मा पूर्व में ध्यान में प्रयुक्त हुआ उस वेगसे पूरित ऊपर जाता है, जैसे कोई पुरुष वेगसे पूरित होकर दौड़ता है और उस दौड़नेके प्रयत्न को छोड़कर ठहरना चाहता हुआ भी कुछ समय तक ठहर नहीं पाता अथवा जैसे अग्नि शिखा स्वभाव से हमेशा ऊपर जाती है वैसे कर्मों से मुक्त हुआ जोव स्वभावसे ऊपर जाता है ॥२२०३।।२२०४।।
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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