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मरणकण्डिका लेश्याशरीरयोगाभ्यां सूक्ष्माम्यां कर्मबंधकः । शुक्लं सूक्ष्मनियं ध्यानं कर्तुमारभतेजिनः ।।२१८६।। सूक्ष्मक्रियेण रुद्धोऽसौ ध्यानेन सूक्ष्मविग्रहः । स्थिरीमूतप्रदेशोऽस्ति कर्मबंधविजितः ॥२१६०॥ प्रयोगोऽन्यतरह नरायन वय असम् । सुभगाय पर्याप्तं पंचाक्षोच्चयासि सः ॥२१६१॥
नष्ट किया जाता है । योग निरोधके पूर्व सर्वत्र बादर योग रहता है। सयोग केवली बादर काययोगमें स्थित होकर बादर मनोयोग और बादर वचनयोगको नष्ट करते हैं पुनः बादर काययोगको नष्ट करते हैं पुनः सूक्ष्मकाय योगमें स्थित होकर सूक्ष्म मनोयोग तथा सूक्ष्म वचन योगको पूर्णतया नष्ट करते हैं । इसप्रकार प्रति समय योग शक्तिको घटाते हुए इस सयोग केवनी गुणस्थानके अंत समयमें योग शक्ति का पूर्णनाश हो जाता है और वे अयोग केवली नामा चौदहवें गुणस्थान में प्रवेश करते हैं ।
बादर योगोंको नष्ट करके तथा सक्ष्म मनोयोग और वचन योगको भी नष्ट कर चुकनेके बाद सूक्ष्म काययोगमें स्थित होनेपर सयोग केवलोके सूक्ष्म क्रिया अप्रतिपाति नामका तीसरा शुक्लध्यान होता है। इससे पूर्व तेरहवें गुणस्थानके काल में तथा केवलो समुद्घात काल में भी यह शुक्लध्यान नहीं होता ऐसा जानना चाहिये ।
सूक्ष्म शुक्ल लेश्या और सूक्ष्म काययोग द्वारा कर्मबंधको करने वाले अर्थात् सातावेदनीय रूप ईर्यापथ आस्रवको करने वाले वे सयोगी जिन सूक्ष्म क्रिया अप्रतिपाती नामके तीसरे शुक्ल ध्यानको करना प्रारंभ करते हैं । वे केवलो जिन उस सूक्ष्म क्रिया अप्रतिपाति ध्यान द्वारा सूक्ष्मयोगका निरोध करते हैं और इसप्रकार संपूर्ण योग नष्ट होकर सर्व आत्मप्रदेश स्थिर हो गये हैं जिनके ऐसे वे अयोग केवलो नामके गुणस्थानमें प्रवेश करते हैं कसे हैं अयोगी जिन ? ईपिथ आस्रव रूप कर्मबंध भी अब जिनके नहीं रहा है ।।२१८६।।२१६०।।
अयोगी जिनके ईर्यापथ रूप प्रास्रव बंत्र तो समाप्त हुआ किन्तु उदय कितनी प्रकृतियोंका है ? ऐसा प्रश्न होनेपर कहते हैं-~प्रयोग केवलीके साता सातामें से कोई एक वेदनोय कर्म, मनुष्यायु, मनुष्यगति, प्रस, सुभग, आदेश, पर्याप्त, पंचेन्द्रिय जाति,