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________________ [ २४३ अनुशिष्टि महाधिकार वैरेकं वृणीष्ध त्वं त्रैलोक्य जीवितव्ययोः । इत्युक्तो जीवितं मुषत्वा अलोक्यं वृणुतेऽत्र कः ॥१५॥ श्रलोक्येन यतो मूल्यं जीवितव्यस्य जायते । जोवजीवितघातोऽतस्त्रलोक्यहननोपमः ॥१६॥ प्राप्यदुर्लभसंतत्या श्रामण्यं सुखसाधकम् । एकाग्रमानसो रक्ष निधानमिव सर्वदा ॥१७॥ अल्पं यथाणुतो नास्ति महवाकाशतो यथा । अहिसाबततो नास्ति तथा परमुस्वतम् ॥१८॥ पर्वतेषु यथा मेरुश्चक्रवर्ती यथा नः । जीवरक्षावत सारं सर्वस्मिन्नपि वते तथा ॥१६॥ दुर्लभ रत्नत्रयकी प्राप्ति रूप बोधि है क्योंकि ऊपर कहे अनुसार कदाचित् धर्मश्रवण और धर्मग्रहण हो गया तो भी विशुद्धि आदि लब्धियोंके बिना सम्यक्त्व आदिकी प्राप्ति नहीं होती है। जीवोंको अपना जीवन कितना प्रिय है यह दिखाते हैं देवों द्वारा प्रसन्न होकर वरदान मिले कि हे मानव ! तुम तीन लोक और अपना जीवन इन दोनों में से एकको मांगो ! इसप्रकार कहने पर जोवनको छोड़कर तीनलोकको कौन स्वीकार करेगा ? कोई भी स्वीकार नहीं करेगा ।।१५।। इससे ज्ञात होता है कि तीनलोकके मूल्यसे अधिक मल्य जोवनका है अत: किसी जोवके जीवनका धात-हिंसा करना तीन लोकके घातके समान है ।।१६।। पूर्वोक्त प्रकार मनुष्यादि पर्याय और उसमें भी दुर्लभ बोधि है जो कि श्रामण्यरूप है, उस दुर्लभ परंपरासे मिले हुए सुखके साधनभूत श्रामण्य-मूनिपने को प्राप्त करके हे क्षपक ! एकानमन होकर निधिके समान इसकी तुम सदा हो रक्षा करना ।।८१७।। जैसे इस विश्व में अणसे छोटा कोई अन्य पदार्थ नहीं हैं और आकाशके समान अन्य कोई महान्-बड़ा पदार्थ नहीं है अर्थात् अणु सबसे छोटा और आकाश सबसे बड़ा है । वैसे ही अहिंसा व्रतसे अन्य कोई बड़ा व्रत नहीं है ।।८१८।। जिस प्रकार पर्वतोंमें सारभूत श्रेष्ठ पर्वत सुमेरु है, मनुष्योंमें महान् चक्रवर्ती है, उसोप्रकार सर्व व्रतोंमें श्रेष्ठत जीवरक्षा व्रत-अहिंसावत है ।।१९।।
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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