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________________ २४४ ] मरएक पिडका पथाऽकाशे स्थितो लोको धरण्यां द्वीपसागराः । सर्ववतानि तिष्ठन्ति जोषत्राणवते तथा ॥२०॥ यथा तिष्ठति चक्रस्य न तुबेन विनारकाः । एतविना न तिष्ठन्ति यथा चक्रस्य नेमयः ॥२१॥ तथा शोलानि तिष्ठन्ति न विना जीवरक्षया । तस्याः शोलानि रक्षार्थ सस्यादीनां यथा वृतिः ॥८२२।। व्रतं शोलं तपो दानं नर्ग्रन्थ्यं नियमो गुणः । सर्वे निरर्थकाः सन्ति कुर्वतो जीवहिंसनम् ॥२३॥ ग्राश्रमाणां मतो गर्भः शास्त्राणां हृदयं परम । पिडं नियमशीलानां समतानामहिंसनम् ॥२४॥ असूनतादिभिदु:खं जीवानां जायते यतः । परिहारस्ततस्तेषां अहिंसाया गुणोऽखिलः ॥२५॥ जैसे यह जगत् आकाशके आधारपर स्थित है, द्वीप सागर पृथिवीके आधार पर स्थित हैं, वैसे अहिंसा-व्रतके आधार पर सर्वव्रत स्थित हैं ।।२०।। जैसे चक्रके तुबीके बिना आरोंको स्थिति नहीं है और आरोंके बिना चक्रके नेमि [धुरा] की स्थिति नहीं होती है। वैसे अहिंसाके बिना शोल नहीं ठहरते । अहिंसाको रक्षाके हेतु ही शोलोंका पालन बताया है। जैसेकि धान्यों की रक्षाके हेतु खेतोंमें बाड़ होती है ।।८२१।।२२।। __ जीवकी हिंसा करनेवालेके व्रत, शील, तप, दान, मुनिपद नियम और गुण ये सब ही निरर्थक हुआ करते हैं ।।८२३॥ यह अहिंसा सब आश्रमोंका गर्भ है, शास्त्रोंका हृदय है और नियम शील तथा समताका पिंड है 11८२४॥ असत्य, चोरी आदि पापोंसे जीवोंको दुःख होता है अत: उनका परिहार त्याग करते हैं, उन पापोंका परिहार करने से जो गुण होता है वह सर्व ही अहिंसाका गुण है ।।८२५
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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