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अनुशिष्टि महाधिकार
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गोस्त्रीब्राह्मणबालानां धर्मो यस्त्यहिंसनम् । न तवा परमो धर्मः सर्वजोवदया कथम् ।।८२६॥ सर्वेः सर्वे समं प्राप्ताः संबंधा जंतुभिर्यतः । संबंधिनो निहन्यते ततस्तानिघ्नता ध्र वम् ।।८२७॥ अात्मघातोऽङ्गिनां घातो नया तात्यात्मनो दया । विषकांड इव त्याज्या हिंसातो दुःखभीरुणां ॥२८॥ उद्धगं कुरुते हिंस्रो जीवानां राक्षसो यथा । संबंधिनोऽपि नो तस्य विश्वासं जातु कुर्वते ॥२६॥ इह बंधं वघं रोधं यातनां देशधाटनम् । हिंस्रो बैरमभोग्यत्वं लम्ध्या गच्छति दुर्गतिम् ।।८३०॥
गाय, स्त्री, ब्राह्मण और बालकका घात नहीं करना यदि धर्म माना जाता है तो सर्व ही जीवोंपर दया करना परमधर्म कैसे नहीं माना जायगा ? अर्थात माना ही जायगा ।।८२६।।
जब इस संसार में अनादिकालसे परिभ्रमण करते हुए सब जोव सभी जीवों के साथ संबंधको प्राप्त हो चुके हैं तब उन जीवोंको मारनेवाला नियमसे अपने संबंधियों को मारता है ऐसा ही सिद्ध होता है ।।८२७।।
पर जीवका घात करना अपना घात कहलाता है और पर जीवको दया अपनी दया कहलाती है । इसलिये हिंसासे होनेवाले दुःखोंसे जो डरते हैं उन्हें विषकांडके समान हिंसाको छोड़ देना चाहिये ।।८२८॥
हिंसक व्यक्ति समस्त जीवोंको उवेग-भय उत्पन्न करता है जैसे राक्षस सबको भय उत्पन्न करता है। हिंसकके ऊपर उसके संबंधी जन भी विश्वास नहीं करते हैं ।।८२६॥
पर जीवोंकी हिंसा करनेवाला व्यक्ति इस लोक में बंधन, वध, कारागह, अनेक शारीरिक, मानसिक यातनाको प्राप्त करके तथा देश निकाला, वैर और जातिसे च्युति को प्राप्तकर अंतमें दुर्गतिमें जाता है ।।८३०।।