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मरणकण्डिका
यतो रुष्टः परं हत्वा कालेन म्रियते स्वयम् । हतहंत्रीस्ततो नास्ति विशेषस्तं क्षरणं विना ॥८३१॥ अल्पायुटुबलो रोगी विरूपो विकलेन्द्रियः । दुष्टगंधरसस्पर्को जायतेऽमुत्र निसकः ॥३२॥ एकोऽपि हन्यते येन शरीरोभवकोटिषु । म्रियते मार्यमाणोऽङ्गी विधानविविधरसौ ॥८३३॥ दुर्गतौ यानि दुःखानि दुःसहानि शरीरिणाम् । हिसाफलानि सर्वाणि कथ्यन्ते तानि सूरिभिः ॥८३४॥ हिंसातोऽविरतिहिंसा यदि वा वचिंतनम् । यतः प्रमसतायोगस्ततः प्रागवियोजकः ॥३५॥
षिकी कापिकी प्राणघातिको पारितापिकी । क्रियाधिकरणी चेति पंच हिसाप्रसाधिकाः ॥३६॥
जिसकारण हष्ट-क्रोधी पुरुष परको मारकर यथासमय स्वयं मर जाता है, अतः कहना चाहिये कि मारा गया और मारनेवाला इन दोनोंमें कुछ विशेषता नहीं है, केवल कालकी विशेषता है अर्थात् हिंसकने जिसे मारा वह पहले मरा और खद हिंसक पोछे मरा और कुछ नहीं ।।८३१॥
हिंसक व्यक्ति मरकर मरलोकमें अल्पायु, दुर्बल, रोगो, कुरूप, विकल-इन्द्रिय, नेत्र प्रादिसे विहीन ऐसा होता है तथा खोटे रस, गंध, स्पशंवाला होता है ।।८३२।।
जो व्यक्ति एक भी जीवको मारता है तो वह जीव करोड़ों भवोंमें विविध प्रकारोंसे मारा जाकर अंतमें मरणको प्राप्त हो जाता है ॥३३॥
इन संसारी प्राणियोंको नरक आदि दुर्गतियोंमें जो दुःसह दुःख भोगने पड़ते हैं वे सब भी हिंसाके कटक फल हैं ऐसा आचार्योंने कहा है ।।८३४॥
हिंसासे विरत नहीं होना हिंसा है अथवा किसीको मारनेका चितवन करना हिंसा है क्योंकि अविरति आदि प्रमत्तयोग है और प्रमत्तयोगसे प्राणोंका वियोग होता है ।।८३५॥
द्वेषिको त्रिया-पर द्वारा हरण आदिसे जो द्वेष होता है उस द्वष युक्त क्रिया कोषिकी क्रिया कहते हैं । दुष्टतासे शरीरको क्रिया करना कायिकी क्रिया है, प्राण