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________________ अनुशिष्टि महाधिकार हिंसा त्रिभिश्चतुभिश्च पंचभिः साधयन्ति ताः । क्रिया बंधः समानेन द्वेषिकी कायिकी क्रिये ।।८३७ | जीवाजीवविकल्पेन तत्राधिकरणं द्विधा [ शतमष्टोत्तरं पूर्व द्वितीयं च चतुविधम् ||८३८ || विधिना योगकोपादिसंरंभादिकृतादयः I भिवा भवंति पूर्वस्य गुण्यमानाः परस्परम् ||६३६॥ [ २४७ घातक क्रिया प्राणघातिको क्रिया कहलाती है 1 परको संताप देनेवाली पारितापिकी क्रिया है और हिंसा के उपकरण ग्रहण करना क्रियाधिकरणी क्रिया है, ये पांच हिंसाकी प्रसाधक क्रियायें हैं । । ८३६|| उपर्युक्त द्वेषिकी आदि क्रियायें मन, वचन, काय द्वारा क्रोत्रादि चार कषाय और स्पर्शनादि पांच इन्द्रियों द्वारा हिंसाको सिद्ध कराती हैं और इस हिंसा से होनेवाला कर्मबंध समान और असमान दो तरहसे होता है । द्वेषिकी ओर कायिकी क्रिया समान है तो समान बंध होगा अन्यथा नहीं ||८३७॥ हिसाके अधिकरण दो हैं जीवाधिकरण और अजीवाधिकरण, उनमें जीवाधिकरण एक्सो आठ भेदवाला है और दूसरा अजीवाधिकरण चार प्रकारका है || ८३८ || जोवाधिकरणके एकसौ आठ भेद मनोयोग, वचनयोग, काययोग ये तीन योग। क्रोध, मान, माया, लोभ ये चार कषाय, संरंभ, समारंभ, आरंभ ये तोन तथा कृत, कारित और अनुमोदित ये तीन इस प्रकार इनका परस्पर गुणा करनेपर पहले जीवाधिकरणके एकसी आठ भेद हो जाते हैं ||८३९ ।। भावार्थं तीन योग, चार कषायें ये तो प्रसिद्ध हैं कृत- खुद करना, कारितअन्यसे कराना, अनुमोदित करते हुएको भला मानना अनुमोदित है। संरंभ आदि तीन का स्वरूप आगेकी कारिका द्वारा बताते हैं ।
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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