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________________ २४८ ] मरणकण्डिका संरंभोऽकथि संकल्पः समारंभो वितापकः । शुद्धबुद्धिभिरारंभः प्राणानां व्यपरोपकः ॥८४०॥ निर्वर्तना सनिक्षेपा संयोगः सनिसर्गकः । विचतुर्वित्रिभेदाः स्युवितीयस्य यथाक्रमम् ॥८४१।। निर्वर्तनोपषिर्देहो दुःप्रयुक्तोऽभिधीयते । निक्षेपः सहसादृष्ट दुईष्टाप्रत्यवेक्षणौ ॥८४२॥ -- - -- शुद्ध बुद्धिवाले गणधर आदिने सरंभ आदिका लक्षण इसप्रकार बताया हैकिसी कार्यका संकल्प करना संरंभ कहलाता है। कार्यके उपकरण एकत्रित करना संमारंभ है जो कि जीबोंके लिये तापकारक है, कार्य प्रारंभ कर देना है आरंभ, यह प्राणोंका घातक रूप है ।।८४०।। दूसरे अजीवाधिकरण के निर्वर्तना, निक्षेप, संयोग और निसर्ग ऐसे मलमें चार भेद हैं, पुनः निर्वर्तनाके दो, निक्षेपके चार, संयोगके दो और निसर्गके तोन भेद हैं ।।८४१।। निर्वर्तनाके दो भेद बताते हैं---शरीर द्वारा खोटी प्रवृत्ति अथवा शरीरको खोटे कार्य में लगाना शरीर निर्वर्तना कहलाती है। उपधिनिर्वर्तना-उपकरणोंका निर्माण, जिनके द्वारा जीवोंको बाधा हो अथवा जिनके निर्माण में हो जोव घात होता है उसे उपधि निर्वर्तना कहते हैं । निक्षपके चार भेद हैं-सहसानिक्षेप-किसी भी वस्तुको शोघ्रता से रखना । अदृष्टनिक्षेप-बिना देखे और शोघ्रतासे बस्तुको रखना । दुईष्टनिक्षेप असावधानीसे वस्तुको रखना । अप्रत्यवेक्षणनिक्षेप बिना देखे सीधे हो वस्तुको रखना ।।८४२।। विशेषार्थ-- निर्वर्तनाके दो भेद हैं शरीर निर्वर्तना, उपधि निर्वर्तना । शरीर की दष्ट कार्य में प्रवृत्ति होना शरीर निर्वर्तना है और उपधि उपकरणों के निर्माण और प्रयोगमें हिंसा होना उपधि निर्वर्तना है । तत्वार्थ सूत्र ग्रन्थमें छठे अध्यायके नौवें सूत्र में आगत निर्वर्तना शब्दके टोकाकार ने मूलगुण निर्वर्तना और उत्तरगुण निर्वर्तना ऐसे दो भेद किये हैं । शरीर मन, वचन, श्वासोच्छ्वासको रचना मूलगुण निर्वर्तना है और काष्ठ, मिट्री आदिसे चित्रादिको रचना उत्तर गुण निर्वर्तना है। निक्षेपके चार भेद
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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